शिवलिंग का अर्थ

 यह  एक ऐसा विषय है जिसपे हर गैर सनातनी  निसाना साधता है पहले हम इस शिवलिंग के विषय मे जानते है फिर इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोसिस करेन्गे --

#शिवलिंग_क्या  --

शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है।शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।

शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है नाही शुरुवात ।ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ । हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है।

इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है ।

ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है. वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. (The universe is a sign of Shiva Lingam.)

शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान है।

#लिंग_वास्तव_में_क्या_है -

त आकाशे न विधन्ते -
वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात….. रूप, रस, गंध और स्पर्श ……..ये लक्षण आकाश में नही है …. किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।

निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -
वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २ ०
अर्थात….. जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है ….वह आकाश का लिंग है ……. अर्थात ये आकाश के गुण है ।

अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि ।
 -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० ६
अर्थात….. जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये …. काल के लिंग है ।

इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम ।
-वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात……. जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है ….उसी को दिशा कहते है……. मतलब कि….ये सभी दिशा के लिंग है ।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -
न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात….. जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है…… और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है ।

इसीलिए……… शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन………. इसे लिंग कहा गया है…।

#दुविधा_के_कारण -

जैसा कि हम सभी जानते है कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं|

#उदाहरण_के_लिए………

यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो…….

सूत्र मतलब डोरी/धागा गणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है| जैसे कि नासदीय सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि |

उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ : सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी ।

ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है तथा कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam)

#निष्कर्ष -

पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है..अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है…

तो कुल मिलकर अर्थ ये है

लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है, शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक । दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई, बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके । लेकिन कुछ विकृत मुग़ल काल से कुछ दिमागों ने इस में जननागों की कल्पना कर ली और झूठी कुत्सित कहानियां बना ली और इस पीछे के रहस्य की जानकारी न होने के कारण अनभिज्ञ भोले हिन्दुओं को भ्रमित किया गया ।

#वैज्ञानिक_दृष्टिकोण --

फ्रांस के वैज्ञानिक बफ्तन ने 1749 में यह सिद्ध किया कि एक बहुत बड़ा ज्योतिपिंड एक दिन सूर्य से टकरा गया‚ जिसके परिणाम स्वरूप बड़े बड़े टुकड़े उछल कर सूर्य से उछल कर अलग हो गए। सूर्य के यही टुकड़े ठण्डे हो कर ग्रह और उपग्रह बने। इन्हीं टुकडों में एक टुकड़ा पृथ्वी का भी था। इसके बाद सन् 1755 में जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान कान्ट और सन् 1796 में प्रसिद्ध गणितज्ञ लाप्लास ने भी यही सिद्ध किया कि पृथ्वी का जन्म सूर्य में होने वाले भीषण विस्फोट के कारण ही हुआ था।
सन् 1951 में विश्वप्रसिद्ध विद्वान जेर्राड पीकूपर ने एक नया सिद्धान्त विश्व के सामने प्रस्तुत किया।उनके सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण पिण्ड शून्य में फैला हुआ है। सभी तारों में धूल और गैस भरी हुई है‚ पारस्परिक गुरूत्वाकर्षण की शक्ति के कारण घनत्व प्राप्त करके यह सारे पिण्ड अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहे हैं। चक्कर काटने के कारण उनमें इतनी
उष्मा एकत्रित हो गई है कि वे चमकते हुए तारों के रूप में दिखाई देते हैं। उनका यह मानना है कि सूर्य भी इसी स्थिति में था और वह भी अंतरिक्ष में बड़ी तेजी से चक्कर लगा रहा था। उसके चारों ओर वाष्पीय धूल का एक घेरा पड़ा हुआ था। वह घेरा जब धीरे–धीरे घनत्व प्राप्त करने लगा तो उसमें से अनेक समूह बाहर निकल कर उसके चारों ओर
घूमने लगे। ये ही हमारे ग्रह‚ उपग्रह हैं‚ और इन्हीं में से एक हमारी पृथ्वी है। जो सूर्य से अलग होकर ठण्डी हो गई और उसका यह स्वरूप आज दिखाई दे रहा है।
सूर्य से अलग होने पर पहले हमारी पृथ्वी जलते हुए वाष्पपुंज के रूप में अलग–थलग पड़ गई थी। धीरे–धीरे‚ करोड़ों वर्ष बीत जाने पर उसका धरातल ठण्डा हुआ और इसकी उपरी सतह पर कड़ी सी पपड़ी जम गई। पृथ्वी का भीतरी भाग जैसे–जैसे ठण्डा होकर सिकुड़ता गया‚ वैसे–वैसे उसके उपरी सतह में भी सिकुड़नें आने लगीं। उन्हीं सिकुड़नों को हम आज पहाड़ों‚ घाटियों के रूप में देखते हैं।

रुद्रहृदयोपनिषद् के अनुसार -

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:।।

यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।

ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।

यह श्लोक बताता है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू है।

किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो , उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व नीचे ) होता है.. जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है

उसी प्रकार बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं।

दरअसल सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके ।
हमारे पुराणो में कहा गया है की प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है ।

इस तरह सामान्य भाषा में कहा जाए तो उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है।

और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है ।

#जैसे_की --

हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है) , ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक रहस्य बने हए है.. और, हजारों की संख्या में है.. तथा , जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है । ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना … इत्यादि…

#दोनो_में_समानता देखिए वैज्ञानिक भी यही मानते है कि अंतिरिक्ष में सूर्य से ही धरती की उत्पत्ति हुई है और रुद्रहृदयोपनिषद् के अनुसार शिव ही उत्पत्ति का केन्द्र है और शिव का एक नाम लिंगम भी कहा गया है जिसका अर्थ है ब्राम्हण्ड अब कोई सीधी भाषा मे कहे कि ब्राम्हण्ड में पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है या कोई कहे शिव लिंग विग्रह हुआ दोनो एक है ।।

#लिंग_विग्रह -

पृथ्वी का सूर्य से टूट कर अलग होना या शिव का लिंग विग्रह होना दोनो एक है जिसे विज्ञान ने सीधी भाषा मे कहा है तो पुराणों ने साहित्यिक भाषा मे ताकि हम आसानी से समझ सके और इस प्रकिया को याद रखे इसलिए हमने ऊर्जा के प्रतीक दीपक से इसकी शुरुआत की और दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई, बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके ।

शिवलिंग दीपक का ही एक प्रारूप है ना कि कोई जननांग ।। बाकी मूर्ख जो समझे उनकी इक्षा।।

#खण्डन_जारी_रहेगा ...........
कई दिनों से इनबॉक्स में कुछ मित्र इस विषय पे लिखने को बोल रहे थे चूंकि ये विषय विस्तृत है इसलिए देर से लिख रहा हूँ --

शिवलिंग...... जी ये एक ऐसा विषय है जिसपे हर गैर सनातनी  निसाना साधता है पहले हम इस शिवलिंग के विषय मे जानते है फिर इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझने की कोसिस करेन्गे --

#शिवलिंग_क्या  --

शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने से इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है।शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।

शिव लिंग का अर्थ अनन्त भी होता है अर्थात जिसका कोई अन्त नहीं है नाही शुरुवात ।ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ । हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है और आत्मा ऊर्जा है।

इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते है ।

ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है. वास्तव में शिवलिंग हमारे ब्रह्मांड की आकृति है. (The universe is a sign of Shiva Lingam.)

शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-आनादी एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतिक भी अर्थात इस संसार में न केवल पुरुष का और न केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है अर्थात दोनों सामान है।

#लिंग_वास्तव_में_क्या_है -

त आकाशे न विधन्ते -
वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात….. रूप, रस, गंध और स्पर्श ……..ये लक्षण आकाश में नही है …. किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।

निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -
वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २ ०
अर्थात….. जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है ….वह आकाश का लिंग है ……. अर्थात ये आकाश के गुण है ।

अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि ।
 -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० ६
अर्थात….. जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये …. काल के लिंग है ।

इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम ।
-वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात……. जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है ….उसी को दिशा कहते है……. मतलब कि….ये सभी दिशा के लिंग है ।

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -
न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात….. जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है…… और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है ।

इसीलिए……… शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन………. इसे लिंग कहा गया है…।

#दुविधा_के_कारण -

जैसा कि हम सभी जानते है कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं|

#उदाहरण_के_लिए………

यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो…….

सूत्र मतलब डोरी/धागा गणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है| जैसे कि नासदीय सूत्र ब्रह्म सूत्र इत्यादि |

उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ : सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी ।

ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है।धरती उसका पीठ या आधार है और सब अनन्त शून्य से पैदा हो उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है तथा कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे : प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam)

#निष्कर्ष -

पुरुष और स्त्री दोनों को मिलाकर मनुष्य योनि होता है..अकेले स्त्री या अकेले पुरुष के लिए मनुष्य योनि शब्द का प्रयोग संस्कृत में नहीं होता है…

तो कुल मिलकर अर्थ ये है

लिंग का तात्पर्य प्रतीक से है, शिवलिंग का मतलब है पवित्रता का प्रतीक । दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई, बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके । लेकिन कुछ विकृत मुग़ल काल से कुछ दिमागों ने इस में जननागों की कल्पना कर ली और झूठी कुत्सित कहानियां बना ली और इस पीछे के रहस्य की जानकारी न होने के कारण अनभिज्ञ भोले हिन्दुओं को भ्रमित किया गया ।

#वैज्ञानिक_दृष्टिकोण --

फ्रांस के वैज्ञानिक बफ्तन ने 1749 में यह सिद्ध किया कि एक बहुत बड़ा ज्योतिपिंड एक दिन सूर्य से टकरा गया‚ जिसके परिणाम स्वरूप बड़े बड़े टुकड़े उछल कर सूर्य से उछल कर अलग हो गए। सूर्य के यही टुकड़े ठण्डे हो कर ग्रह और उपग्रह बने। इन्हीं टुकडों में एक टुकड़ा पृथ्वी का भी था। इसके बाद सन् 1755 में जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान कान्ट और सन् 1796 में प्रसिद्ध गणितज्ञ लाप्लास ने भी यही सिद्ध किया कि पृथ्वी का जन्म सूर्य में होने वाले भीषण विस्फोट के कारण ही हुआ था।
सन् 1951 में विश्वप्रसिद्ध विद्वान जेर्राड पीकूपर ने एक नया सिद्धान्त विश्व के सामने प्रस्तुत किया।उनके सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण पिण्ड शून्य में फैला हुआ है। सभी तारों में धूल और गैस भरी हुई है‚ पारस्परिक गुरूत्वाकर्षण की शक्ति के कारण घनत्व प्राप्त करके यह सारे पिण्ड अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहे हैं। चक्कर काटने के कारण उनमें इतनी
उष्मा एकत्रित हो गई है कि वे चमकते हुए तारों के रूप में दिखाई देते हैं। उनका यह मानना है कि सूर्य भी इसी स्थिति में था और वह भी अंतरिक्ष में बड़ी तेजी से चक्कर लगा रहा था। उसके चारों ओर वाष्पीय धूल का एक घेरा पड़ा हुआ था। वह घेरा जब धीरे–धीरे घनत्व प्राप्त करने लगा तो उसमें से अनेक समूह बाहर निकल कर उसके चारों ओर
घूमने लगे। ये ही हमारे ग्रह‚ उपग्रह हैं‚ और इन्हीं में से एक हमारी पृथ्वी है। जो सूर्य से अलग होकर ठण्डी हो गई और उसका यह स्वरूप आज दिखाई दे रहा है।
सूर्य से अलग होने पर पहले हमारी पृथ्वी जलते हुए वाष्पपुंज के रूप में अलग–थलग पड़ गई थी। धीरे–धीरे‚ करोड़ों वर्ष बीत जाने पर उसका धरातल ठण्डा हुआ और इसकी उपरी सतह पर कड़ी सी पपड़ी जम गई। पृथ्वी का भीतरी भाग जैसे–जैसे ठण्डा होकर सिकुड़ता गया‚ वैसे–वैसे उसके उपरी सतह में भी सिकुड़नें आने लगीं। उन्हीं सिकुड़नों को हम आज पहाड़ों‚ घाटियों के रूप में देखते हैं।

रुद्रहृदयोपनिषद् के अनुसार -

सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:।

रुद्रात्प्रवर्तते बीजं बीजयोनिर्जनार्दन:।।

यो रुद्र: स स्वयं ब्रह्मा यो ब्रह्मा स हुताशन:।

ब्रह्मविष्णुमयो रुद्र अग्नीषोमात्मकं जगत्।।

यह श्लोक बताता है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू है।

किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो , उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व नीचे ) होता है.. जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है

उसी प्रकार बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं।

दरअसल सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके ।
हमारे पुराणो में कहा गया है की प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है ।

इस तरह सामान्य भाषा में कहा जाए तो उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है।

और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है ।

#जैसे_की --

हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है) , ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक रहस्य बने हए है.. और, हजारों की संख्या में है.. तथा , जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है । ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना … इत्यादि…

#दोनो_में_समानता देखिए वैज्ञानिक भी यही मानते है कि अंतिरिक्ष में सूर्य से ही धरती की उत्पत्ति हुई है और रुद्रहृदयोपनिषद् के अनुसार शिव ही उत्पत्ति का केन्द्र है और शिव का एक नाम लिंगम भी कहा गया है जिसका अर्थ है ब्राम्हण्ड अब कोई सीधी भाषा मे कहे कि ब्राम्हण्ड में पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है या कोई कहे शिव लिंग विग्रह हुआ दोनो एक है ।।

#लिंग_विग्रह -

पृथ्वी का सूर्य से टूट कर अलग होना या शिव का लिंग विग्रह होना दोनो एक है जिसे विज्ञान ने सीधी भाषा मे कहा है तो पुराणों ने साहित्यिक भाषा मे ताकि हम आसानी से समझ सके और इस प्रकिया को याद रखे इसलिए हमने ऊर्जा के प्रतीक दीपक से इसकी शुरुआत की और दीपक की प्रतिमा बनाये जाने से इस की शुरुआत हुई, बहुत से हठ योगी दीपशिखा पर ध्यान लगाते हैं । हवा में दीपक की ज्योति टिमटिमा जाती है और स्थिर ध्यान लगाने की प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है इसलिए दीपक की प्रतिमा स्वरूप शिवलिंग का निर्माण किया गया ताकि निर्विघ्न एकाग्र होकर ध्यान लग सके ।

शिवलिंग दीपक का ही एक प्रारूप है ना कि कोई जननांग ।। बाकी मूर्ख जो समझे उनकी इक्षा।।

#खण्डन_जारी_रहेगा ........... 

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