।।सृष्टि बने कितने वर्ष हुये।।

।।सृष्टि बने कितने वर्ष हुये।।

जब आर्य समाजियों से पूछा जाए तो कहेंगे 1960853119 वर्ष । पर क्या यह सही ? पहले हम सनातन धर्मानुरूप देखतें हैं फ़िर इनकी गणीत की मूर्खता पर बात करेंगे ।

जब हम पूछते हैं कि सृष्टि बने कितने वर्ष हुये या कब ने तो एक स्वर पुराण कहते हैं -----

काष्ठा पञ्चदशाख्याता निमेषा मुनिसत्तम !।.
काष्ठास्त्रिशत्कला त्रिशत्कला मौहूतिको विधिः ।।
तावत्संख्यरहोरात्रं मुहूर्तेर्मानुषं स्मृतम् ।
अहोरात्राणि तावन्ति मासः पक्षद्वयात्मक:
तैः षडभिरयनं वर्ष द्वेऽयने दक्षिणोत्तरे ।
अयनं दक्षिणं रात्रिदेवानामुत्तरं दिनम् ॥
चतुर्युगं द्वादशभिस्तदविभागं निबोध मे ।
दिव्यैर्वर्षसहस्रस्त कृतत्रेतादिसंज्ञितम् ।।
प्रोच्यते तत्सहस्रच ब्रह्मणो दिवसं मुने ! ।।
ब्रह्मणो दिवसे ब्रह्मन् मनवस्तु चतुर्दश ।
ब्राह्मो नैमित्तिको नाम तस्यान्ते प्रतिसंचर ॥
( विष्णपुराण प्रथमांशेऽध्ययाः ३)

अर्थ-आंख की पलक गिरने में जितना समय लगता है उसे निमेष कहते हैं, १५ निमेष की एक काष्ठा, ३० काष्ठा की एक कला, ३० कला को एक घड़ी, दो घड़ी का एक मुहूर्त, ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र ( दिन और रात ) होता है। ३० अहोरात्र का दो पक्ष वाला एक महीना, छः महीने का एक अयन और दक्षिण और उत्तर दो अयनों का एक मानव-वर्ष होता है। एक मानव वर्ष देवतागों का
एक दिन, इस प्रकार-दिव्य बारह हजार वर्षों की एक चतुर्युगा होती है। एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है, जिसमें १४ मनु व्यतीत होते हैं । ब्रह्मा का एक दिन समाप्त हो जाने पर प्रलय हो जाती है, वह ब्रह्माजी की रात्री है, उसका परिणाम भी दिन के
समान है, इस प्रकार १०० दिव्य वर्ष ब्रह्मा की आयु है उसे 'परा' कहते हैं। सष्टि को बने कितने वर्ष हुवे यह तत्व हम पुराणों के आधार पर नित्य प्रति कई बार पढ़ते हैं। सनातन धर्मियों का कोई भी शुभाशुभ कर्म- यहाँ तक कि संध्यावन्दनादिक नित्यकर्म भी इस तत्त्व को भली- भांति जान लेने पर ही प्रारम्भ होता है। जिस सन्दर्भ से आर्यजाति अनादि काल से लेकर आज तक सृष्टिगणना को ठीक २ समझती चली आ रही है उस महामन्त्र का नाम 'संकल्प' है, जो इस प्रकार पढ़ा जाता है।

.. 'ब्रह्मणो द्वितीयपराः श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत-
मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे...

अब हम मन्वंतर पद्धति का निरूपण करते हैं पाठ ध्यान पूर्वक पढ़े गे और पुराणों के अलौकिकता का परीक्षण करेंगे।

( चौदह मनुवों के नाम )
(१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) उत्तम (४) तामस (५) रेवत(६) चाक्षुष (७) वैवस्वत (८) साणिक (९)दक्षसावर्णिक(१०) ब्रह्मसावणिक (११) धर्मसावणिक (१२) रुद्रसावणिक(१३) देवराःणिक और (१४) इन्द्रसावणिक । (वि० पू० १० । ३)

एक कल्प के इतिहास को पुराण कहते हैं । ब्रह्मा जी के एक दिन का नाम कल्प है। एक कल्प में एक सहस्र महायुग और चौदह मन्वन्तर होते हैं। सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि इन चार युगों का एक महायुग होता है । प्रत्येक युग में #संध्या पौर #संध्यांश होता है। युग के आरम्भ होने के अव्यहित (जिसके बीच में और कोई न हो) पूर्वकाल को संध्यांश कहते हैं। दो युगों की सन्धि को संध्या कहते हैं। दिन की जिस प्रकार प्रातःसंध्या और सायं-सध्या होती है। इस प्रकार युग के भी संध्या  और संध्यांश होते हैं। युग के अनुसार स्वभाव का परिवर्तन होता है। यह स्वभाव काल गत है। जैसे प्रातःकाल के समय मनुष्य अपने आप ही शान्त स्वभाव बाला होता है, मध्याह्न में व्यग्र भाव वाला होता है, दिन के अन्त में आलस्य वाला होता है, इसी प्रकार प्रत्येक कल्प में, प्रत्येक मन्वन्तर में और प्रत्येक युग में काल के अनुरूप भिन्नता होती है। दिन के आदि से अन्त तक में यह बात हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, किन्तु दिन के भाव परिवर्तन को हम जिस प्रकार प्रत्यक्ष करते हैं उसी प्रकार दीर्घ व्यापी काल को नहीं कर सकते। हमारा एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है । उनके एक वर्ष में हमारे ३६० वर्ष होते हैं। देवमान के अनुसार युगो का परिमाण नीचे लिखा जाता है। इनमें ३६० से गुणा करने पर मनुष्यों के संवत्सर बन सकते हैं।

अब हम चारो युग इनके सन्ध्या संध्यांश और युगकाल को लिखते है जोड़ कर :----

१) #सत्यगुग

             (देव) 👇                      (मनुष्य)👇
सन्ध्या = 400                              144,000
युगकाल= 4000                         1440000 
संध्यांश= +400                          + 144000
           ----------                         -------------
जोड़ =4800                               17,28000 (वर्ष)

२) #त्रेता

(देव) 👇                      (मनुष्य)👇
सन्ध्या = 300                     108,000         
युगकाल=3000                 1080000       
संध्यांश= + 300              +  108000
           ----------                 -------------
जोड़ = 3600                     12,96000  (वर्ष)

३)  #द्वापर

    (देव) 👇                      (मनुष्य)👇
सन्ध्या =    200                  72000     
युगकाल=  2000              720000 
संध्यांश= +  200               +72000
           ----------                   --------------
जोड़ =    2400                           864000 (वर्ष)

४) #कली

 (देव) 👇                      (मनुष्य)👇
सन्ध्या = 100                      36000   
युगकाल=1000                 360000 
संध्यांश= +100                 +36000 
           ----------                  -------------
जोड़ =   1200                       432000   (वर्ष)

अब =सतयुग+त्रेता+द्वापर+कलियुग
        4800+3600+2400+1200= #12000(देव वर्ष)

                     और

17,28000 +12,96000+864000 + 432000= #4320000( मनुष्य वर्ष)

एक कल्प में एक सहस्र महायुग होता है इसीलिए :------
12000×1000 =12000000(देव वर्ष)

                         और
43200000×1000=4320000000 (मनुष्य वर्ष) मानव सम्वत्सर का होता है ।

एक कल्प में चौदह मन्वंतर होते हैं इस लिए
12000000/14 =857142.8571 देववत्सर

                    और
4320000000/14=308571428.6 मनुष्य

एक मन्वंतर में 1000/14= 71 6/14

अर्थात एक मन्वंतर में 71 सत्यगुग , 71 त्रेता, 71 द्वापर ,71 कलियुग  होते हैं । और 6/14 के लिए साधिका शब्द का प्रयोग होता है ।
#स्वे स्वे कालं मनुर्भुड़क्ते साधिका ह्यकेसप्ततिम् ।'
(श्रीमद्भागवत ३-११-२४)

अब वर्तमान समय देखतें है तो 1 मन्वन्तर बराबर होता है
71 चतुर्युगी है इस लिए 71×43200000=3067200000
इस लिए 6 मन्वंतर बराबर 3067200000×6=184032 0000 वर्ष होगा  और इनकी  सात सन्धिया 12096000। चूंकि 27 सत्यगुग त्रेता द्वापर कलियुग बिता गया है इस लिए 27×43200000=116640000 और अठाइसवा सतयुग त्रेता द्वापर बीत चुका है जिसका मान है
(17,28000+12,96000+864000 =3893119)

तो अब (गत छः मनुओं के वर्ष +इनकी सात सन्धियों का वर्ष +सतावे मनु कि गत 27 चतुर्युगी के वर्ष +अठाइसवी चतुर्युगी के भक्त वर्ष )

( 1840320000+12096000+116640000+3893119= #1972949119 वर्ष )

#स्वामी_दयानन्द_की_भारी_भूल
इसके अतिरिक्त यहां एक और प्रासंगिक बात बता देनी उचित प्रतीत होती है । वह यह है कि आर्यसमाज प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में सृष्टि के गताब्द निकाले हैं जो आर्यवत्सर के नाम से आर्यसमाज की सभी पुस्तकों पर छपे रहते हैं, जिसका आधार पुराण ग्रन्थों के मन्वन्तर आदि ही हैं और हमारा वह पूर्वोक्त सङ्कल्प ही वेदमन्त्र की तरह स्वतः-प्रमाण माना है । हमें वर्तमान आर्य समाजियों से कहना है कि जब आप पुराणों के विषय में अभद्र सम्मति प्रदान किया करते हैं उस समय यह स्मरण रक्खा करें कि यदि पुराणों में सृष्टि-विज्ञान न मिलता तो वेदों का अनादित्व और आर्यों को प्राचीनता किस प्रकार सिद्ध करते?

वेदों में तो इस विज्ञान का स्पष्टतया कहीं पर भी प्रतिपादन नहीं किया गया है । यदि होता तो स्वामी जी जिन पुराणों को 'पोपों के बनाये' कहते हैं-उनकी शरण में न पाते । वेदों का विज्ञान समाधि-गम्य है, उसे कलियुग के पामर प्राणी नहीं समझ सकते, इसी विचार से प्रेरित होकर भगवान् वेदव्यासजी ने उन समाधिगम्य रहस्यों को पुराणों में सरल बनाकर प्रतिपादन किया है। यदि वेदों से यह पूछना चाहोगे तो वह सम्राट की तरह- #कोऽद्धा वेद और #कस्तद्वेद_यदद्भुतम्' कहकर
आपको पुराण पढ़ने का ही आदेश करेंगे। स्वामी जी ने पुराणानभिज्ञ होने के कारण इस गणित में बड़ी
भारी गलती भी खाई है-एक दो की कौन कहे वह तो पूरी करोड़ों की गलती है। आप अपने कपोलकल्पित आर्यवत्सर में सात सन्ध्यायंश के भुक्त 1,20,96,000 वर्ष जमा करने भूल गये, जिससे आपका आर्यवत्सर #1_अर्ब_96 करोड़ ...आदि ही रह गये, जो #सिद्धान्त_शिरोमणि आदि ग्रन्थों के प्रतिकूल और सर्वथा अशुद्ध है। यही गलती राहुल आर्य ने भी कि हम आशा करते हैं कि हमारे भाई #आर्य_समाजी हमारे कहने से उसे ठीक कर लेंगे । अन्यथा हठाचरण से 'बाबा वाक्यं प्रमाणम्' मानते रहने पर गणितज्ञों की दृष्टि में स्वामी दयानन्द का यह अशुद्ध लेख खटकता रहेगा, और साथ ही दयानन्दी समाज की गणितपुङ्गवता (?) भी टपके बिना न ररेगी।

                                ।। जय श्री राम ।।

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