#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 2 "

#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 2 "
" दयानंद जी द्वारा मंगलाचरण का निषेध "
दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में मंगलाचरण को अमंगलकारी बताते है।  वह  लिखते है कि ऐसा  (मंगलाचरण) हमको करना योग्य नहीं । 

दयानंद जी का ऐसा लिखना सत्य नहीं है।
क्योंकि अपनी इस पुस्तक का आरम्भ ही  मंगलाचरण से करते है ।
सत्यार्थप्रकाश की  भूमिका में सबसे पहले  मंगलाचरण ही है ।
दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका के  आरम्भ में " ओ३म् सच्चिदानन्दायेश्वराय नमो नमः"  लिखा है;  यह क्या है ?
क्या यह मंगलाचरण नहीं है?
 
धर्मग्रन्थों में किये जाने वाले मंगलाचरण को अमंगलकारी बताते हुये उसी सत्यार्थप्रकाश  में  वे आगे लिखते हैं कि "  जो आदि मध्य और अंत में मंगल करेगा तो उसके ग्रंथ में आदि मध्य और मध्य तथा अंत के बीच में जो कुछ लेख होगा वह अमंगल ही रहेगा। "
दयानंद जी स्वयं तो सत्यार्थप्रकाश के आरम्भ में  मंगलाचरण करके अपने ग्रंथ को तो मंगलकारी बनाना चाहते हैं  लेकिन दूसरों को ऐसा करने से रोकते हैं।
उनका यह विचार न तो वेदानुकूल है और न ही प्राचीन व आधुनिक संस्कृत साहित्यकारों के अनुकुल ।
यह वचन उनके मनोनुकूल है क्योंकि ऐसा कहना उन्हे अच्छा लगता है।

अपनी हर बात में शास्त्र प्रमाणिक होने का दावा करने वाले दयानंद जी ने अपनी इस बात की पुष्टि के लिये कौई शास्त्र प्रमाण नहीं दिया ।
उन्होंने नहीं बताया कि किस धर्म ग्रन्थ में लिखा है कि मंगलाचरण करना अमंगलकारी है।
 चूकि उनकी यह बात शास्त्रानुकूल है ही नही तो वे प्रमाण कहाँ से देते।
आप उनके इन विचारों को वेदसम्मत तो नहीं कह सकते लेकिन मनमत या व्यक्तिगत मत अवश्य  कह सकते है।
 वे अपने ग्रन्थों में तो  मंगलाचरण करते है और अन्य किसी के द्वारा मंगलचरण करने को बुद्धिहीनता बताते है।

मंगलाचरण के विषय मे शास्त्र का मत क्या है आइये देखते है:-

धर्म शास्त्रों के अनुसार  प्रत्येक कार्य को आरंभ करने से पूर्व मंगलाचरण करने की शास्त्रीय परंपरा रही है।  मंगलाचरण करना शिष्टाचार है। हमारे धर्मग्रंथ, हमारे ऋषि-मुनि, सनातन धर्म व संस्कृत साहित्य  के विद्वान आदिकाल से  ऐसा करते आये है और वे  हमें भी ऐसा करने की आज्ञा  देते है ।

देखिये प्रमाण
पातंजल महाभाष्य भूवादयो घातव ( अष्टाध्यायी  सूत्र  1/3/1) में लिखा है:- " मंगलादीनि मंगलमध्यानि मंगलान्तानि हि शास्त्राणि प्रधन्ते वीर पुरुषाणि च भवन्त्यायुष्मत्पुरुषाणि चाsध्येतारश्च मंगलयुक्ता यथा स्युरिति ।।"
 अर्थात जिन शास्त्रों के आदि मध्य और अंत में मंगलाचरण किया जाता है। वह सुप्रसिद्ध होते हैं, निर्विघ्न समाप्त होते हैं, तथा उनके अध्ययन करने वाले (वक्ता और श्रोता) आयुष्यमान् वीर और मंगलकल्याण युक्त होते हैं।
और भी प्रमाण देखिये 
आदि मध्यावसानेषुयस्य ग्रन्थस्य मंगलम्।
तत्पठनं पाठनाद्वापि दीर्घायु धार्मिको भवेत् ।।

एक प्रमाण और देखिये 

" तर्कसंग्रह प्रदीप " में  इस प्रश्न पर की मंगलाचरण करना चाहिए इसका क्या प्रमाण है ? 
 बताया गया है 
" समाप्तिकामो मंगलमाचरेत " 
कि यह शिष्टाचार है
 (जिस कर्म का वेदोक्त तत्व ज्ञान पूर्वक वेदविहित कर्म करने वाले श्रेष्ठ पुरुष  आचरण करते आए हैंउसे शिष्टाचार कहते है )

यह प्रमाण भी देखे:-  
महाभारत ग्रंथ में मंगलाचरण करने की आज्ञा है।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।
इस श्लोक में भगवान नारायण-श्री कृष्ण, नरस्वरूप व  नरश्रेष्ठ अर्जुन, भगवती सरस्वती महर्षि वेदव्यास की स्तुति पाठ का आदेश दिया गया है कहा गया है इन्हे नमस्कार करके की जयग्रन्थ (महाभारत रामायण पुराण)का पठन पाठन करना चाहिये।

अन्त में दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश से ही प्रमाण:-
दयानंद सरस्वती जी अपने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में स्वयं ही लिखते हैं
" मंगलाचरणं शिष्टाचारात् फलदर्शनाच्छ्रुतितश्चेति।"
मंगलाचरण करना शिष्टाचार है।
 
शेष अगले भाग में ..........

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