सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य भाग-4
सत्यार्थप्रकाश में मंत्र की अशुद्धि-1
दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास के आरम्भ में कैवल्य उपनिषद का एक मंत्र लिखते है उनका लिखा वह मन्त्र अशुद्ध हैं उनका लिखा मंत्र इस प्रकार है:-
स ब्रह्मा स विष्णुः स रूद्रस्स शिवस्सोsक्षरस्स परमः स्वराट्। सःइन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।।
अब आप केवल्योपनिषद में वर्णित शुद्ध मंत्र को देखे जो प्रकार से है:-
स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट् स एव विष्णुः स प्राणः सःकालोsग्निः स चन्द्रमा।
इस मंत्र के अर्थ में भी दयानंद जी ने मनमानी की है उनका अर्थ इस प्रकार है :-
सब जग के बनाने से ब्रह्मा, सर्वत्र व्यापक होने से विष्णु, दुष्टो को दंड देके रुलाने से रूद्र, मंगलमय सबका कल्याणकर्ता होने से शिव, जो सर्वत्र व्यापक अविनाशी स्वयं प्रकाशस्वरूप और (कालाग्नि) प्रलय में सबका काल और काल का भी काल है इसलिये परमेश्वर का नाम का कालाग्नि है।
अब आप इस मंत्र का सीधा अर्थ देखे :-
जो गीताप्रेस की पुस्तक उपनिषद अंक से लिया गया है ।
वही ब्रह्मा है वही शिव है वही इंद्र है वही अक्षर अविनाशी परमात्मा है वही विष्णु है वह प्राण है वह काल है अग्नि है वह चंद्रमा है।
दयानंद जी ने अपने अर्थ में व्याख्या डाल कर अपने मन्तव्य को सिद्ध करना चाहा है पर तत्कालीन विद्वानों ने उनका कपट पकड लिया ।
आप भी उनकी चतुराई समझे अन्त में कालाग्नि शब्द की व्याख्या उन्होंने क्यो नहीं कि कालाग्नि में काल और अग्नि को स्पष्ट क्यो नहीं किया ।
दयानंद जी ने यहाँ यह नहीं बताया कि यह मंत्र किस देव से सम्बन्धित है। यदि बता देते तो स्वार्थ सिद्ध कैसे होता।
आईये समझिये इस मंत्र का भाव
एक बार आश्वलायन ऋषि भगवान प्रजापति ब्रह्मा जी के पास गए और बोले भगवन! सदा संतजनों द्वारा परिसेवित अत्यंत गोपनीय तथा अतिशय श्रेष्ठ उस ब्रह्मविद्या का मुझे उपदेश कीजिए जिसके द्वारा विद्वान लोग शीघ्र ही सारे पापों को नष्ट करके परात्पर पुरुष पर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
ब्रह्मा जी आश्वलायन ऋषि को ध्यान की विधि बताते हैं।
वे बताते हैं कि उन उमा सहित परमेश्वर को, समस्त चराचर जगत के स्वामी को, प्रशान्त स्वरूप, त्रिलोचन नीलकंठ महादेव जो समस्त भूतों के मूल कारण हैं सबके साक्षी हैं तथा विद्या से परे प्रकाशमान हो रहे हैं उनको मुनि लोग ध्यान के द्वारा प्राप्त करते हैं।
तब वह बताते हैं वहीं ब्रह्मा है वही शिव है वही इंद्र है वही अक्षर अविनाशी परमात्मा है वही विष्णु हैं वह प्राण हैं वह काल है अग्नि है वह चंद्रमा है जो कुछ हो चुका है और जो कुछ भविष्य में होने वाला है वह सब वही है उन सनातन तत्वों को जानकर प्राणी मृत्यु से परे चला जाता है।
और अंत में बताते हैं जो शतरुद्रिय का पाठ करता है। वह अग्नीपूत होता है, वायुपूत होता है, आत्मपूत होता है, सभी दोषों से छूट जाता है।
वह शुभाशुभ कर्मों से उद्धार पाता है।
भगवान् सदाशिव के आश्रित हो जाता है और अविमुक्तस्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि
दयानंद जी केवल दस उपनिषद ही पढने का आदेश देते है
उनका वह वचन इस प्रकार है
परंतु वेदांत सूत्रों को पढ़ने से पूर्व ईश,.केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेयी, तैत्तिरेयी, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दस उपनिषदों को पढ़के छह शास्त्रों के भाष्य वृत्ति सहित सूत्रों को दो वर्षो के भीतर पढावे और पढ़ लेवे ।
(सत्यार्थ प्रकाश तृतीय समुल्लास)
इन उपनिषदों में केवल्योपनिषद तो नहीं है।
जब उपनिषद शताधिक है फिर दयानंद जी की दृष्टि केवल दस पर ही क्यो ?
और यदि दस ही महत्वपूर्ण है तो दयानंद जी पुस्तक में अन्य उपनिषद का प्रमाण क्यो ?
इस कैवल्योपनिषद में भगवान शिव की महिमा है
यजुर्वेद के अन्तर्गत शतरुद्रिय की महिमा है ।
दयानंद जी भगवान शिव की निन्दा करते है ।
वे शतरुद्रिय की भी निन्दा करते है।
फिर भी कैवल्योपनिषद का प्रमाण देते है।
मंत्र भी अशुद्ध लिखते है और अर्थ मनमाना लिखते है।
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