दयानद भाष्य खंडन भूमिका

भूमिका :
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दयानंद ने अपनी मृत्यु से कुछ महीनों पहले सन् 1882 में इस ग्रन्थ के दूसरे संस्करण में स्वयं यह लिखा-
नियोग्

...
जिस समय मैंने यह ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ बनाया था, उस समय और उस से पूर्व संस्कृतभाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था, इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है। इसलिए इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी वार छपवाया है। कहीं-कहीं शब्द, वाक्य रचना का भेद हुआ है सो करना उचित था, क्योंकि इसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह निकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गई है।
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समीक्षा : इस लेख से पहला सत्यार्थ प्रकाश गुजराती भाषा मिश्रित विदित होता है किन्तु इसमें कोई भी गुजराती भाषा शब्द पाया नहीं जाता भला वह तो अशुद्ध हो चुका पर अब यह तो दयानंद के लेखानुसार सम्पूर्ण ही शुद्ध है। क्योंकि इसके बनाने से पूर्व न तो स्वामी जी को लिखना ही आता था न शुद्ध भाषा ही बोलनी आती थी इससे यह भी सिद्ध होता है कि इस सत्यार्थ से पूर्व रचित वेदभाष्यभूमिका तथा यजुर्वेदादि भाष्यों की भाषा भी अशुद्ध होगी क्योंकि शुद्ध भाषा का ज्ञान तो दयानंद को इस सत्यार्थ प्रकाश को लिखने के समय हुआ है ।

मुझे उम्मीद है ज्ञानी लोग दयानंद की धूर्तता का अंदाज़ा इस भूमिका को पढ़ने के बाद ही लगा लेंगे, क्योकि यदि दयानंद की बात मानते है तो  इससे पहले रचित वेदभाष्यभूमिका , यजुर्वेदादि भाष्य आदि असुद्ध हो जाते है और यदि उन्हें शुद्ध माना जाए तो फिर  दयानंद झूठा सिद्ध होता है 

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