योगेश्वर श्री कृष्ण

पौराणिक श्रीकृष्ण और योगेश्वर ।

हमारे आर्य समाजी बन्धु प्रायः आरोप लगाते हैं , कि पुराणोंमें श्रीकृष्णका चरित्र बिगाड़ दिया है, महाभारत के श्रीकृष्ण योगिराज हैं , ब्रह्मचारी-तपस्वी और एक पत्नीव्रती हैं । क्या यह आरोप युक्तिसङ्गत है ? चलिये इसी पर स्वस्थ्य चर्चा करते हैं ।

सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को महाभारत और पुराणों में योगेश्वर स्वरूप से सर्वत्र वर्णन मिलता ही है , अर्थात् योगियोंके भी ईश्वर , लेकिन योगीराज शब्द तो कहीं भी नहीं मिला । यदि श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहेंगे तो श्रीकृष्ण ईश्वर सिद्ध हो जाएंगे , जो कि ये लोग कभी स्वीकार नहीं कर सकते इसीलिए श्रीकृष्णके लिये  काल्पनिक योगीराज शब्द विकसित किया । चलिये हमे कोई आपत्ति नहीं ,हम स्वीकार कर लेते हैं श्रीकृष्ण योगिराज (सर्वश्रेष्ठ मनुष्य) हैं । आधुनिक समाजी  विद्वान योग का अर्थ केवल बाबा रामदेव द्वारा कराया जाने वाले व्यायाम ही समझते हैं और जिसने थोडा बहुत अध्ययन कर लिया है वो योग का अर्थ 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: '(योगदर्शन १/२) और  'यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि ।।'(योगदर्शन २/२९)  आदि सूत्रों के आधार पर चित्त की वृत्तिका निरोध और यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार , धारणा ,ध्यान और समाधि आदि आठों अंगो को ही योग समझते हैं ,योग के ये अंग होना ही योगीराज होना समझते हैं । किन्तु ये सब तो योगकी विधि है योगसे प्राप्त फल नहीं ।
अब अष्टाङ्ग योग का फल देखिये -
'ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसम्पत्तद्धर्मानभिघातश्च । (योगदर्शन ३/४५)  -( तत: )= उस भूतजन्य से;( अणिमादिप्रादुर्भाव)=अणिमा आदि आठ सिद्धियोका प्रकट हो जाना ; (कायसम्पत् ) = कायसम्पत् की प्राप्ति; (च)= और ; (तद्धर्मानभिघात:)= उन भूतो के धर्मों से बाधा न होना ---(ये तीनो प्राप्त होते हैं ) , आठ सिद्धियां ये हैं -
(१)  अणिमा - अणुके समान सूक्ष्म रूप धारण कर लेना ।(पट-वस्त्रादि रूप से द्रौपदीजी को परिवेष्ठित करना )
(२)  लघिमा - शरीर को हल्का कर देना । (श्रीराधा-श्रीरुक्मिणीजी के तुलसी पत्र से  तुल जाना )
(३)  महिमा - शरीर को बड़ा कर लेना । (अर्जुन-उत्तंक को विराट रूप दिखाना )
(४)  गरिमा  - शरीर जो भारी कर लेना । (तृणावर्त उद्धार के समय )
(५) प्राप्ति   - इच्छित भौतिक पदार्थ को संकल्प से प्राप्त कर लेना । (व्रज में बहुमूल्य मोतियों की खेती करना )
(६) प्राकाम्य - बिना रुकावट भौतिक पदार्थ सम्बन्धी इच्छा पूर्ति अनयास हो जाना । (फलवालु ,दरिद्र ब्राह्मण मित्र और  सुदामा माली पर कृपा )
(७) वशित्व  - पाँचों भूतों का और तज्जन्य पदार्थों का वश में हो जाना । (व्रज के गोप-गोपी,गाय -बछड़े , हरिण आदिका पशु पक्षिओं का अनन्य प्रेम )
(८) ईशित्व - उन भूत और भौतिक पदार्थों का नानारूपों में उत्पन्न करने की और उन पर शासन करने की सामर्थ्य  ।(गिरिराज धारण और पारिजात हरण के समय इंद्रपर भी शासन करना )

जो समाजी बन्धु  इन सिद्धियों  पर विश्वास नहीं करते , उनके लिये स्वामी दयानन्दके यजुर्वेद भाष्यका भावार्थ  और भाषाभाष्य  ज्यों का त्यों उतार रहा हूँ , जो कि स्वामीजी का बनाया हुआ है  -

"अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छतं ते प्राणाः  सहस्रं व्याना: ।
त्व ँ्साहस्रस्य राय ईशिषे  तस्मै  ते विधेम वाजाय स्वाहा ।। (यजु०१७/७१)
(स्वामी दयानन्दकृत भावार्थ ) --- जो योगी पुरुष तपः स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आदि योग के साधनों से योग (धारणाध्यान समाधि संयम ) के बल को प्राप्त होता और अनेक प्राणियों के शरीर में प्रवेश करके अनेक शिर नेत्र आदि अंगों से देखने आदि कार्यों को कर सकता है , अनेक पदार्थों का वा धनो का स्वामी हो सकता है उसका हम लोगों को अवश्य सेवन करना चाहिये ।"

 योगीराज तो वही हो सकता है जिसे अष्टाङ्ग योगका सम्पूर्ण फल प्राप्त हो ,केवल चित्त की वृत्तियों का निरोध करने वाला योगीराज नहीं कहायेगा ।  महाभारत में केवल ८८०० श्लोकों ही प्रमाणिक श्लोक मानने वाले समाजी महाभारत में किस चरित्र से श्रीकृष्ण को अणिमा-महिमा-लघिमा आदि सिद्धियों से सम्पन्न योगिराज कहते हैं ? तपस्या-ब्रह्मचर्य में क्या भीष्मजी कम है ? अष्टसिद्धियों के स्वामी श्रीकृष्णका योगेश्वर स्वरूपका  पुराणों में ही वर्णन हैं । जिस रासलीला पर और १६१०८ पत्नियों के कारण श्रीकृष्ण चरित्र को विकृत करने का आरोप लगाते हैं ,उसी चरित्र में श्रीकृष्ण योगेश्वर सिद्ध होते हैं , रासलीला का अर्थ है --रसस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रकी विविधरूपों और व्यक्तियों में अभिव्यक्ति । स्थितिक्रिया के अनुसार रासलीला का अर्थ है तत्त्वशोधन । पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश , अहम् , महत् और अव्यक्तका पृथक् -पृथक् तथा युगपत् -शोधन पुराणोमें चरितार्थ है । मृद्भक्षण और नवनीतभक्षणादि पृथ्वीशोधन लीला है । कालियदमन और कालीयदहशोधन यह जलशोधनलीला है । व्योमासुर -उद्धार आकाशशोधनलीला है । अघासुर -उद्धार अहंशोधनलीला है । ब्रह्मपराभव महत्-शोधनलीला है ।  पूतना-उद्धार अविद्यारूप अव्यक्तशोधनलीला है । अष्टधाप्रकृतिरूपा गोपाङ्गनाओं के दुकूलापहरण के अनन्तर रसाविष्ट रससंस्पृष्ट वस्त्रप्रदान से स्वसम्मिलनके निमित्त गोपाङ्गनाओं में शक्तिपात सर्वतत्त्वशोधन लीला है । लयक्रियाके अनुसार रासलीलाका अर्थ है विविध वस्तुओं में सन्निहित रसतत्त्वकी श्रीकृष्ण के प्रति स्फूर्ति । श्रीकृष्णकी रासमें जितनी गोपियाँ , द्वारिका में जितनी पत्नियां उतने रूपों में अभिव्यक्ति क्या साधारण मनुष्य का कार्य है ? सहस्रों गोपियों-पत्नियों  के मध्य सहस्रों रूप धारण करके रहना और फिर भी ब्रह्मचारी रहना क्या ये भगवान् श्रीकृष्ण का  योगेश्वर पुराणों में चरितार्थ नहीं है ? योगी होने के लिये  एकपत्नीव्रती होना आवश्यक नहीं , योगी याज्ञवल्क्य की कात्यायनी और मैत्रियी दो पत्नी थीं । योगी अनेक स्त्रियों में रहकर भी योगी ही रहता है ,और भोगी की एकपत्नी हो भी वह योगी नहीं हो जाता ।

व्रजलीला और निकुंज लीला को समझने यदि बुद्धि नहीं है तो इतना जान लो ,रसिक महानुभावों  सहचरियोंका या श्रीराधारानी का श्रीकृष्ण से सम्बन्ध दिव्य प्रेमकेलि स्वसुख से सर्वथा शून्य एवं समस्त विकारों से विरहित माना है -

इनके  मल   मैथुन   कछु   नाहीं ।
ये   दिव्य  देह  विहरत  वन  माँही ।।

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