अहिल्या सच

।। इंद्र अहिल्या प्रसङ्ग आक्षेप और शास्त्र सम्मत खंडन ।।

शंकावादी कहते हैं कि 'देवराज इन्द्र ने गौतम कि
धर्मपत्नी अहल्या के साथ छुपकर सम्भोग किया। इस
 दुराचार के देखने पर गौतम ने इन्द्र को 'सहस्रभग' हो
जाने का और अहल्या को पाषाणभूत हो जाने का शाप दिया, यह कथा अत्यन्त अश्लील एवं देवराज के दुराचार से परिपूर्ण है-' इत्यादि ।

हम सर्वप्रथम इसका वैदिक-स्वरूप प्रकट करते हैं फिर पौराणिक स्वरूप फिर व्याख्या । 

#वैदिक_स्वरूप 

१) इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते । (ऋग्वेद ६।४७१८)
२)अहल्याया ह, मैत्रेय्याः (इन्द्रः) जार आस। ( षड्विंश १।१)
३) अहल्याय जारेति । (शतपय ३ । ३ । ४ । १८)
४) सहस्राक्षमतिपश्यं पुरस्तात् । (अथर्व ११ । २ । १७ )
५) अहल्यायै जारेति । (षड्विंश १ । १)
६) अहल्यायै जारेति । ( लाट्यायन श्रौतसूत्र १ । ३ ॥१)
७) (इन्द्र !) अहल्यायै जारेति । (तं० १ । १२ । ४ )

अर्थात् : इन्द्र माया से अनेक रूप बनाकर चलता है ,इन्द्र मैत्रेयी अहल्या का जार था।गौतम के शापानुग्रह करने पर ] पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र सहस्राक्ष हो जाने के कारण अतिपश्य =क्रान्तदर्शी हुआ, इन्द्र अहल्या का जार। 

#पौराणिक_स्वरूप

1 ) सहस्रभगसम्प्राप्तिर्दुःखं चैव शचीपते ।
स्वर्गाद् भ्रशस्तथावासः कमले मानसे सरे ।।
( देवीभागवत १ । ५ । ४६ )
2)एकदा गोत्तमः शीघ्र जगाम शंकरालयम् ।
शक्रो गोत्तमरूपेण तां तु भोगं चकार सः ।।
नग्नामहल्यां रहसि पीनश्रेष्ठपयोधराम् ।
मुनिः शशाप शक्रं वै भगाङ्गस्त्वं भवेति च ।।
कोपाच्छशाप पत्नी च सुदती भयविह्वलाम् ।
त्वं वै पाषाण रूपा च महारण्ये भवेति च ।।
(ब्रह्मवैवर्त कृ० ज० खण्ड ६१ । ४४--४६)

अर्थात : शचीपति इन्द्र को सहस्र भग प्राप्ति का दु:ख-प्रद शाप लगा । और [ब्रह्महत्या के कारण] स्वर्ग पतन हुवा तथा मानसरोवर में कमल के नाल में छुपने का कष्ठ उठाना पड़ा।  एक बार महर्षि गौतम शीघ्र ही कैलाश को गए, तब गौतम का रूप बनाकरइन्द्र ने अहल्या से सम्भोग किया [ऋषि ने लौटने पर एकान्त में सुन्दर एवं पुष्ट स्तनों वाली अहल्या को नंगन देखकर इन्द्र को शाप दिया कि तेरे अंग में सहस्र भग हों' पश्चात् क्रुद्ध होकर-भयभीत हुई अपनी सुन्दरी पत्नी को शाप दिया कि 'तू इस महारण्य में पत्थर बनकर पड़ी रह'। यही कथा थोड़ा सा वाल्मीकि रामायण में भी प्राप्त है एव मानस में भी । 

(अब देखतें हैं इसका वास्तविक भाव । ) 

श्री कुमारिल भट्ट ने अपने "तन्त्रवार्तिक नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ में उक्त ऐतिहासिक वेद-गाथा का सूर्य-रात्रि-परक, रूपकप्रायः अर्थ किया है । तदनुसार चन्द्रमा ही ( उत्तमा गावो रश्मयो यस्य सः ) गोत्तम है, रात्रि ही उसकी पत्नी ( अहर्लीयते यस्यां सा ) अहल्या है । सूर्य ही [य एष (सूर्य) स्तपति, एष उ एव इन्द्रः] (शतपथ ४।५।६।४ )के अनुसार परमैश्वर्य-सम्पन्न होने के कारण इन्द्र है। वह सूर्य रात को जीर्ण करने वाला है अतएव वही 'जार' कहा जाता है। उक्त रूपक के समर्थन में नीचे लिखे प्रमाण निरुक्त का प्रमाण  द्रष्टव्य हैं-

क)सुषुम्णः सूर्य्यरश्मिचन्द्रमा गन्धर्व इत्यपि निगमो
भवति, सोऽपि गौरुच्यते ।... ''सर्वेऽपि रश्मयो
गाव उच्यन्ते ।(निरुक्त २ । २ । २)

(ख)आदित्योऽत्र जार उच्यते रात्रेर्जरयिता।
(निरुक्त३ । ३ । ४)

अर्थात : सूर्य की सुषुम्णा नामक रश्मि चन्द्रमा को रूप सम्पन्न बनाती है-यह वैदिक सिद्धान्त है, सो उस रश्मि को 'गो' कहते हैं अथवा सभी रश्मियों को #गो कहते हैं , वेदों में आदित्य (सूर्य) को  ही जार कहा है क्यों वह रात को जीर्ण/परिसमाप्त   खत्म करने वाला है । 

 उक्त प्रसङ्ग पर मुख्य आक्षेप करता आर्य समाजी ही हैं अतः आर्य समाजा के संस्थापक दयानंद स्वामी कि इस प्रसङ्ग में सम्मति अनिवार्य समझता हूं यथा :―― 

इन्द्रः सूर्यो य एष तपति, भूमिस्थान्पदार्थांश्च
प्रकाशयति । अस्येन्द्रेति नाम परमैश्वर्यप्राप्तेर्हेतुत्वात् ।स अहल्याया जारोऽस्ति । सा सोमस्य स्त्री तस्य गोत्तमेति नाम। गच्छतीति गौरतिशयेन गौरिति गोत्तमश्चन्द्रः । तयोःस्त्रीपुरुषवत् सम्बन्धोस्ति । 'अत्र स सूर्य इन्द्रो रात्रहल्याया गोत्तमस्य चन्द्रस्य स्त्रिया जार उच्यते । कुतः अयं रात्रेजरयिता। जृष् वयोहानाविति धात्वर्थोऽभिप्रेतोऽस्ति । रात्रेरायुषो विनाशक इन्द्रः सूर्य एवेति मन्तव्यम् ।
(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ३००)

अर्थात्-[ दयानन्दीय भाषार्थ ] अर्थात्-[ दयानन्द्रीय भाषार्थ ] सूर्य का नाम इन्द्र, रात्रि का अहल्या तथा चन्द्रमा का गोत्तम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री पुरुष के समान रूपक अलंकार  है। इस रात्रि का जार आदित्य है, अर्थात्-जिसके उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है और 'जार' अर्थात् यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप शृङ्गार को बिगाड़ने वाला है । ... जैसे स्त्री पुरुष मिल कर रहते हैं वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ २ रहते हैं । चन्द्रमा का नाम गोतम इसलिये है कि वह अत्यन्त बेग से चलता है और रात्रि को अहल्या इसलिए कहते हैं कि उसमें दिन लय हो जाता है तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए यह उसका जार कहाता है इत्यादि (ऋग्वेदादि० भू.पृष्ट ३०१)

उपर्युक्त प्रमाणों और सम्मतियों के अनुसार इस वैदिक आख्यायिका का सूर्य-रात्रि परक आधिभौतिक अर्थ लगाने पर कुछ भी आक्षेप अवशिष्ट नहीं रहता: क्योंकि वेद के मूल शब्दों में भी रूपक का कथानक (Plot) प्राय: वैसा ही है जैसा कि पुराणों में निर्दिष्ट हुवा है । दोनों स्थानों में इन्द्र का माया से रूप बदलना, और अहल्या के साथ जार कर्म करना स्पष्ट है।

#ऐतिहासिक समन्वय :~~~~~

पुराणों में बहुत से ऐसे प्रसङ्ग विद्यमान हैं जो कि रूपक प्राय: होते हुवे भी मानव इतिहास के साथ
आंशिक सम्बन्ध रखते हैं । जबतक ऐसे विमिश्रित आख्यानों का तात्त्विक विश्लेषण न कर लिया जाय तब तक विशुद्ध मानव इतिहास की तथ्य सीमा का पता नहीं लग सकता" । तदनुसार यह आख्यान जहां
आधिभौतिकबाद में सूर्य और रात्रि का पारस्परिक सम्बन्ध प्रकट करता है वहाँ इसका ऐतिहासिक व्यक्तियों से भी पूरा २ सम्बन्ध है, यथा प्रसिद्ध महषि गोतम और उनकी धर्मपत्नी अहल्या, मानव दम्पति थे जिनसे राजा जनक के पुरोहित मुनि शतानन्द जी उत्पन्न हुये थे।
भगवान् रामचन्द्र जी ने शिलाभूत अहल्या का उद्धार किया था इत्यादि सब प्रसङ्ग वाल्मीकीय रामायण (बालकाण्ड सर्ग ४८ ) में विस्तारपूर्ण 
आता है। उक्त आख्यान को रूपकमात्र मान लेने से उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्यों पर पानी फिर जाता है, अतएव ऐतिहासिक पक्ष वाले सदा से इसको मानव इतिहास से सम्बद्ध मानते आये हैं। कहना न होगा कि जिस प्रकार वर्तमान पाश्चात्य गवेषक एवं उनका अनुसरण करने वाले भारतीय इतिहासकार वेदों को आर्य-जाति का पुरातन इतिवृत्त मानते हैं, इसी प्रकार अनादि काल से ऐतिहासिक पक्ष वाले महर्षिजन भी वेदों को तत्तत् आख्यायिकाओं को वैयक्तिक इतिहास की निदर्शक समझते रहे हैं । इसलिये वेदों के विशेष मर्मज्ञ यास्काचार्य ने अपने परम प्रसिद्ध निरुक्त ग्रन्थ  में स्थान २ पर- #इति_ऐतिहासिकाः, #अथेतिहासमाचक्षते'
इत्यादि स्पष्ट लिखकर ऐतिहासिक पक्ष को भी उचित सम्मान दिया है। प्रस्तु, उपर्युक्त आख्यायिका का वयक्तिक इतिहास से सम्बन्ध है वह एक निर्विवाद  बात है।

कदाचित् कोई ऐसी आशङ्का करे कि रूपक-प्रायः इस आख्यायिका को मानव-इतिहास के साथ सम्बन्ध करने वाले ऐतिहासिकों के पास गे कौन प्रमाण तथा क्या युक्तियें है कि जिनके आधार पर इस प्रसङ्ग का तत्तद् व्यक्तियों से सम्बन्ध माना जा सके ?-तो इसके उत्तर में यही कहना पर्याप्त होगा कि इस आख्यान के मूल शब्द ही इसके ऐतिहासिक होने की स्पष्ट सूचना देते हैं, जैसे कि पूर्वोक्त वैदिक-स्वरूपमें दिये गये 'च' भाग निर्दिष्ट-'अहल्याया ह मैत्रेय्या:' ( इन्द्र) ( षड्विंश १ । १) आदि प्रमाण में अहल्या का विशेषण 'मैत्रेयी' दिया है । व्याकरण के 'स्त्रीभ्यो ढक (४ । १ । १२०) सूत्र के अनुसार 'मित्रा' नामक स्त्री की अपत्यभूत कन्या को ही 'मैत्रेयी' कहा जा सकता है--कदाचित् वेद में उपर्युक्त आख्यान को रूपकमात्र बतलाना अभीष्ट होता तो 'मैत्रेयी' विशेषण द्वारा अहल्या को 'अमुक की अपत्य' कहने की कुछ भी आवश्यकता न थी। इसलिये 'मैत्रेयी' विशेषण ही इस
तथ्य का पर्याप्त निदर्शक है कि 'उक्त कथा का वैयक्तिक इतिहास से भी सम्बन्ध है । सम्भवतः अहल्या महर्षि याज्ञवल्क्य की अन्यतम धर्मपत्नी मैत्रेयी की ही बहिन लगती होगी, समान नाम और सम कालीनता इस अनुमान के पोषक हैं।इसके अतिरिक्त निर्दिष्ट- 'सहस्राक्षमतिपश्यं पुरस्तात्' (अथर्व ११ । २ । १७) आदि प्रमाण  से इन्द्र का 'सहस्राक्ष' होना सुस्पष्ट है । अन्यान्य सभी आर्यग्रन्थों में भी सहस्राक्ष शब्द, इन्द्र का अन्यतम पर्याय माना जाता है, परन्तु वह देवराज 'सहस्राक्ष' (=हजार नेत्रों वाला) कब ? कैसे ? और क्यों ? हुआ- इस स्वाभाविक जिज्ञासा की पूर्ति के लिये रूपकवादियों के पास क्या उत्तर विद्यमान है-यह भी तो एक कठिन समस्या है । इसलिये मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने ज्यों ही यौगिक 'सहस्राक्ष' शब्द का कार्यकारण पुरस्सर मनन आरम्भ किया त्योंही उन्हें उसमें इतिहास की झलक दीख पड़ी-जिसका निरूपण वेदव्यास जी ने पुराण ग्रन्थन के समय उपर्युक्त रीति से किया । कहने का तात्पर्य यह हुआ कि अहल्या के प्रसङ्ग में इन्द्र को गोतम जी ने 'सहस्र-भग' हो जाने का शाप दिया, परन्तु पीछे प्रार्थना करने के बाद शापानुग्रह करते हुये सहस्र भगों के बजाय 'सहस्रनेत्र' होने का आशीर्वाद दिया । पुराणों में इन्द्र के 'सहस्राक्ष' होने के सम्बन्ध में जो यह विवेचना की है वह यौगिक 'सहस्राक्ष' की समाधिगम्य कार्य कारण कल्पना ही समझनी चाहिये। इसलिये वेदोक्त 'सहस्राक्ष' शब्दभी इस आख्यान की ऐतिहासिकता का प्रबल निदर्शक है ।इस तरह 'वैदिक-स्वरूप' के मूल शब्दों से ही जब इस आख्यान की ऐतिहासिकता भी सिद्ध है। फिर किसी भी बेदाभिमानी को 'गजनि मोलिका' न्याय से 'पौराणिक स्वरूप' पर पाप करने का क्या अधिकार है ?
यदि वैदिक और पौराणिक, दोनों स्वरूपों पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाय तो एक सीमा तक मानव समाज में वैदिक-स्वरूप के कारण ही दुराचार की अभिवृद्धि की प्राशङ्का हो सकती है, क्योंकि
वहां इन्द्र को स्पष्ट शब्दों में अहल्या का जार कहते हुये भी उसके लिये 'हवि:' प्रदान करने का उल्लेख किया है। कोई भी बालिश इसका यह अर्थ लगा सकता है कि “जब वेद में एक व्यक्ति को 'जार' मानते और कहते हुये भी विधिवत् पूजा जाता है तब इस प्रकार का दुराचार करने पर मैं ही अपूज्य क्यों हूँगा" । परन्तु पौराणिक स्वरूप को साद्यन्त पढ़कर या सुनकर एक मूर्ख से मूर्ख भी ऐसे दुराचार में प्रवृत्त होने का साहस न कर सकेगा, क्योंकि इसके पढ़ने से तो पाठकवर्ग के हृदय पर यही प्रभाव पड़ेगा कि जब देवराज इन्द्र को भी इस तरह की चेष्टा करने पर दण्डभागी होना पड़ा तब मैं तो किस खेत की मूली हूं? अत: इस प्रकर के कार्य से भरसक बचना चाहिये।  कहने का तात्पर्य यह हुआ कि जहाँ वेद, इन्द्र को 'जार' बताते हुये भी दोषी को गोद में छिपाये रखने की सी नीति को बर्तता हुआ, दीख पड़ता है, वहां पुराण मानव मर्यादा की रक्षा के लिये दोषी व्यक्ति को पदाधिकार की लिहाज छोड़कर उचित दण्ड दिलाने का पक्षपाती जान पड़ता है । इसलिये इस आख्यान से पुराणों पर जितना दोषारोपण किया जा सकता है उससे कहीं अधिक वेदों पर भी आ पड़ेगा ! वैदिकता का स्वांग भरने वाले #आर्य_समाजी भाइयों को खूब सोच समझकर ऐसे आक्षेप करने चाहिये।
कदाचित् जिज्ञासा भाव से कोई सज्जन यह पूछना चाहें कि निस्सन्देह दयानन्दी समाज को केवल पुराणों पर आक्षेप करने काकुछ भी अधिकार नहीं है क्योंकि वेदों और पुराणों दोनों में ही यह कथा समान रूप से वर्णित है, तथापि ऐतिहासिक दृष्टि से देवराज इन्द्र का यह अकार्य निन्दनीय अवश्य है इसका क्या उत्तर है ? हम अपने जिज्ञासु महोदय को बतलाएंगे कि सुनिये―

प्रथम तो इन्द्र, देवयोनि का महापुरुष है। वेदादि शास्त्रों में देवयोनि को 'भोगयोनि' माना है,  तदनुसार
धर्म-शास्त्र सम्बन्धी 'परस्त्रीगमन' रूप निषेध स्थूलशरीरधारी मनुष्य जाति तक ही सीमित रहेगा । भोगयोनि होने की है सियत से सूक्ष्मशरीर धारी इन्द्रादि देव इन नियमों में प्राबद्ध नहीं हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त इन्द्र ने केवल कामवासना की पूर्ति के लिये यह अकार्य नहीं किया है बल्कि गोत्तम की उग्र तपश्चर्या से समस्त देव भयभीत थे, यह खड़तल महर्षि अपने उग्र स्वभाव के कारण प्रख्यात हो चुका था। उस दिन जनस्थान के रहने वाले अतिथिभूत कुछ एक मुनियों से बिगड़ कर आपने हरे भरे 'दण्डकारण्य' नामक वन को अनावृष्टि का शाप देकर उजाड़ बना दिया था,-यह परम प्रसिद्ध कथा प्रत्येक रामायणपाठी को प्राय: विदित है, अतः यहाँ विस्तार करने की आवश्यकता नहीं। सो जब समस्त
देवताओं ने गोतम जी को घोर तपश्चर्या करते देखा तो सहसा उन्हें खयाल हुआ कि-

'विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय'

-के अनुसार कदाचित् अब भी गोतम जी इस तपोबल के दुरुपयोग से संसार में कोई न कोई नया अप्रिय काण्ड खड़ा करेंगे ! अतः समस्त ससार के कल्याण के लिए समय से पूर्व ही किसी भांति इनके तपोबल का अपव्यय करा देना चाहिए, जिससे 'न होगा बाँस न बजेगी बांसुरी' वाली कहावत के अनुसार तपोबल के न रहने से यह किसी का कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे? देवसमाज का यह विचार गोतम जी के लिये अच्छा न हो परन्तु दण्डक जैसे लहलहीलतिकाभिलक्षित, शस्य-श्यामल प्रदेश को आन की आन में वियाबान बना देने वाले अवखड़ व्यक्ति के हाथ में तपोबलाप दुधारा खड्ग पाता देखकर किस सर्व-हित-चिन्तक महानुभाव के हृदय में भावी अनर्थ की सम्भावना से व्यथा न होगी-यह भी तो एक विचारणीय समस्या है। आस्ताम तावत् ! देववृन्द ने गोत्तम जी के तप को भंग करने की ठान ली, परन्तु यह काम सरल न था। 'बिल्ली के म्याऊ का ठौर' पकड़ने के बराबर कठिन समस्या थी। अप्सरायें जवाब दे बैठी, कहा कि गोतम जी के घर पर हम से भी सुन्दर पतिव्रता धर्मपत्नी विद्यमान है तब वे हमारे हाव भावों के फन्दे में क्यों फँसने लगे !
कामदेव ने भी कान छू कर 'शान्तं पापम्' कहते हुये कोरा जबाब दिया कि वहां  तो "ई जनाब" का भी दाल गलना मुश्किल जान पड़ता है। देवसभा में सन्नाटा छा गया, गोतम के उग्र स्वभाव का ध्यान करते हुये कोई भी देवता उनके तपोभङ्ग कर सकने की हिम्मत न दिखा सका।
विवश होकर स्वयं देवराज को यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा। सोचा कि तपोभङ्ग के हेतुभूत-काम, क्रोध, लोभ, मोह प्रादि दुर्व्यसनों में से--क्रोध को छोड़ कर और कोई दूसरा शास्त्र गोतम जी पर अचूके  निशाना न लगा सकेगा, अतः, येन केन प्रकारेण गोत्तम जी को कुद्ध कर
देना चाहिये ! बस फिर काम विजय है।

'मनोविज्ञानवेत्ता खूब जानते हैं कि मनुष्य के हृदय में अन्य कई प्रकार के कारणों से भी क्रोध का प्रावेश हो सकता है, परन्तु जितना जल्दी और जितना भयंकर कोप अपनी स्त्री के घर्षण को प्रत्यक्ष देख कर तत्काल एवं दूध के उफान की भांति आपे से बाहिर कर देने वाला देखने में आता है उतना अन्य किसी कारण से सम्भव नहीं। यही जान कर इन्द्र ने क्रोधोत्पादन के अचूक उपाय, स्त्री-घर्षण को ही अपना अमोघ अस्त्र बनाया। अवसर पाकर वह गोतम के घर पहुंचे। ऋषि की अनुपस्थिति में किन्तु जब कि उनका घर पहुंचने का समय निकट था,अहल्या के घर्षण का अभिनय रचा । ऋषि तत्काल आ पहुंचे 'आकाररिङ्गितर्गत्या' इस दुराचारपूर्ण काण्ड को देखते ही आग बगूला हो गए इन्द्र को 'सहस्रभग' हो जाने का, और अहल्या को पत्थर की शिला बन जाने का शाप दे डाला। इन्द्र अपने कर्तव्य-पालन में कृतकार्य हुये अर्थात्
गोतम ऋषि का चिरसंचित तपोबल-जिससे देवसमाज भयभीत हो रहा था, इस शाप के बहाने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। दूसरे शब्दों में एक खतरनाक व्यक्ति के हाथ से थामे हुये सर्वांतकारी खड़ग  को सर्वहितचिन्तक, परोपकारी ने धैर्यपूर्वक अपने सिर पर गिरवाकर उसे सदा के लिए कुण्ठित बना डाला । इस तरह गोतम के तपोबल से त्रस्त हुये अनेक देवता का त्राण हुआ, यही इन्द्रकृत अहल्याघर्षण का अभिप्राय है ।'इन्द्र ने विषय-भोग की लालसा से नहीं, बल्कि गोत्तम जी की तपश्चर्या से भयभीत हुवे देववृन्द की संरक्षा के लिए ही अहल्या-धर्षण का अभिनय किया था'- हमारे उपयुक्त अभिप्राय को डङ्क की चोट घोषित करने वाले नीचे लिखे प्रमाण दर्शनीय हैं, यथा-
 अफलस्तु ततः शक्रो देवानग्निपुरोगमान् ।
अब्रवीत्त्रस्तनयनः सिद्धगन्धर्वचारणान् ।।१।।
कुर्वता तपसो विघ्नं गोतमस्य महात्मनः ।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम् ॥२॥
अफलोऽस्मि कृतस्तेन क्रोधात्सा च निराकृता ।
शापमोक्षेण महता तपोस्यापहृतं गया ।।३।।
तन्मा सुरवरास्सर्वे ऋषिसंघाः सचारणाः ।
सुरकार्य-करं यूयं सफलं कर्तुमर्हथ ।।४।।
शतक्रतोर्वचः श्रुत्वा देवाः साग्निपुरोगमाः।
पितृदेवानुपेत्याहुः सर्वे सह मरुद्गणैः ॥५॥
अयं मेषः सवृषणः शक्रो ह्यवृषणः कृतः ।
मेषस्य वृषणी गृह्य शनायाशु प्रयच्छत ।।६।।
शाग्नेस्तु वचनं श्रुत्वा पितृदेवाः समागताः ।
उत्पाट्य मेष-वृषणी सहस्राक्षे न्यवेशयन् ।।८।।
इन्द्रस्तु मेषवृषणस्तदाप्रभृति राघव ! ।
गोत्तमस्य प्रभावेण तपसा च महात्मनः ॥१०॥
(बाल्मीकीय रामायण बालसगं ४६)

 तदा गोत्तमशापेन भगाङ्गश्च बभूव सः ।।८।।
रवेर्वरेण शक्रः स सहस्राक्षो बभूव ह ।।१०।।
(ब्रह्मवैवर्त कृ० ज० ख० अध्याय ६१ )

अर्थात्-- [ गोत्तम के शाप से ] वृषण रहित हूये इन्द्र ने
अग्नि आदि सब देवताओं को और सिद्ध गन्धर्व चारणों को भयविह्वल होकर कहा महात्मा गोतम के तप को भङ्ग करते हुये 'मैंने उनके हृदय में क्रोध को जगा कर समस्त देवताओं का काम बना दिया । 
( टिप्पणी--पुराणों में सहस्रभग हो जाने का उल्लेख और
'वाल्मीकि रामायण' में वृषणरहित हो जाना लिखा है। 'अध्यात्मरामायण' (बालसर्ग ४ टिप्पणी ) में इस विरोध का कल्पान्तर व्यवस्था से परिहार किया है। ) 

 क्रुद्ध होकर गोतम जी ने मुझे वृषणरहित बना दिया,
और अपनी स्त्री को भी [ पाषाण-शिला बना कर ] निराकृत किया । पश्चात् बड़ा भारी शापानुग्रह करवा कर भी मैंने [ दोनों प्रकार से ] उनके तपोबल का अपहरण किया है। इसलिए अब आप सब देव ऋषि चारण प्रादि महानुभाव देव-कार्य करने वाले मुझ को किसी
प्रकार पुन: वृष सहित बनावें  तब (शतक्रतु )इन्द्र के ऐसे वचन सुन अग्नि आदि देवता मरुद्गण सहित पितृ-देवताओं के पास जा कर कहने लगे कि  देवराज वृषणरहित हो गये, परतु यह मेष ( मेंढा ) वृषण वाला है इसलिए आप इस मेंढे के वृषण लेकर शीघ्र ही इन्द्र के अङ्ग में जोड़ दीजिये  अग्नि देव की आज्ञा को सुनकर
पितृदेवताओं ने इकट्ठे होकर मेढ़े के अण्डकोश निकाल कर इन्द्र के देह में जोड़ दिये । ( विश्वामित्र जी कहते हैं कि) हे राम! उस दिन से महात्मा गोतम जी के प्रभाव एवं तपोबल से इन्द्रदेव मेंढे के वृषणों वाले हो गये ।

गोत्तमजी के शाप से इन्द्र के शरीर में सहस्रों भग हो गई थी। परन्तु पश्चात् सूर्य भगवान के वरदान से वे भगचिह्न नेत्रों के रूप में परिवर्तित हो गये-अत: इन्द्र को 'सहस्राक्ष' कहते हैं ॥
उपर्युक्त प्रमाणों द्वारा स्पष्ट है कि इन्द्र ने देव कार्य सम्पादनार्थ ही अहल्या का धर्षण किया था, इसी लिये पीछे सब देवताओं ने इन्द् को सवृषण बनाने में, किंवा कल्पान्तर में सहस्र भगधारी के बजाय 'सहस्राक्ष' करने में जी तोड़ कर प्रयत्न किया था। अन्यथा देवताओं की भरी पञ्चायत में बार २–'सुरकार्य मया कृतम्' 'सुरकार्यकर' इत्यादि इन्द्रदेव के निहोरे क्या माइन रखते थे?-सो सुरम्य-दण्डक वन को उजाड़ बना देने वाले गोतम जी के राष्ट्र-विघातक तपोबल को अपहरण करने के लिए-समस्त देवताओं की सलाह से किया हुआ विश्वरूप वध से ब्रह्महत्या अहल्या धर्षणरूप अकार्य राष्ट्रभक्तों की दृष्टि में किसी प्रकार भी अपराध नहीं हो सकता : क्योंकि इससे जहाँ एक स्त्री के घर्षण का पाप ( जो कि अहल्या को ब्रह्मा कि मानसी पुत्री और इन्द्र को दिव्य देहधारी मानने की दशा में 'अमैथुनी-सृष्टि विषयक' होने के कारण शास्त्रदृष्टि से पाप ठहरता भी नहीं)--होता होगा, वहां अनन्त प्राणियों का आङ्कित आपत्ति का परिहार हो जाने के कारण महान् पुण्य भी तो होता ही होगा ! अतः 'अनेकान्त-बाद' सिद्धांत के अनुसार इन्द्र का यह कर्तव्य किसी प्रकार भी दोषास्पद नहीं माना जा सकता, जैसा कि भगवद्गीता में भगवान् ने आदेश दिया है- 
#स्वल्पमप्यस्य_धर्मस्य_त्रायते_महतो–भयात् ।
(भगवद्गीता २ । ४०)
अर्थात-निष्काम दृष्टि से किया हुवा थोड़ा सा भी काम बड़े भारी भय से बचा देता है। सो इन्द्रदेव ने भी यह सब कार्य समस्त देवताओं की आज्ञा से अपना कर्तव्य समझ कर किया था । इसमें उनका निजी कुछ भी स्वार्थ न था बल्कि सब की आपत्ति अपने ऊपर उठाकर उपकार करना उनका ध्येय था। यही कारण है कि इस परोपकार का अन्तिम परिणाम भी इन्द्रदेव के लिये महा-वरदान सिद्ध हुवा जो 'सहस्राक्ष' रूप में प्रत्यक्ष दीख पड़ता है ।

अतः शंकावादियो, आक्षेप कर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि बिना कुछ जाने अनाप सनाप नहीं बकना चाहिए  और शास्त्रों के रहस्यों को न जान कर उसे मिलावटी कहना वैसा ही जैसे रसगुले  ना मिले तो तीखे हैं । 

 

 ।।   जय श्री राम  ।।

Comments

  1. तुमसे डामेज कंट्रोल नहीं हो पायेगा...
    वाल्मीकि रामायण से स्पष्ट है कि अहल्या शापित थी यहाँ अलग ही बातें हैं. वह शापित थी तीनों लोकों में शाप के प्रभाव से अदृश्य थी.भगवान राम के आगमन से वह शाप मुक्त हुई. और उन्हें पाँव धोने के लिए जल दिया.
    यहाँ डामेज कंट्रोल के दयापंथी ऋषि गौतम को चाँद और अहल्या को रात बताते हैं.
    कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा....😀😀

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