आर्यनामाजी नियोग ऋषि

माता सीता कि अग्नि परीक्षा पर आक्षेप और रहस्यों को न जानने के कारण नमाजियो का इस प्रसङ्ग को तोड़ मोड़ कर बताना ,इस पर हमारा शास्त्र सम्मत खंडन और वैज्ञानिक विश्लेषण :~~~~~~~~~

चूंकि यह एक धर्मी विषय है अतः इसके लिए भगवान मनु ने कुछ निर्देश दिया है कि धर्म के विषय मे जब जिज्ञासा हो तो प्रामाण क्या होता है तो कहा "धर्म जिज्ञासा में श्रुति परम प्रमाण है " ।
'#धर्म_जिज्ञासमानानां_प्रमाणं_परमं_श्रुति:' (मनु.२.१३.) 

अतः हम इस घटना का समर्थ वेद से करवाना उचित समझते हैं वेद भगवान ने इस घटना के बारे में कहा कि । 

#सुप्रकेतैर्युभिरग्निवितिष्ठन्नुषद्भिर्वर्णैरभिराममस्थात् ।
( साम उत्तरार्चिक १५ । २ । १ । ३)
अर्थ-सुन्दर चिन्हों से और दीप्तिमान् वर्णों से उपलक्षित धुलोक की साधनभूत, रामपत्नी सीता सहित अग्निदेव रामचन्द्र के सम्मुख उपस्थित हुये । 

राम चरित मानस में तुलसीदास ने एक बहुत हि सुंदर बात कही है "अनेक पुराण, वेद और [तन्त्र] शास्त्रसे सम्मत तथा जो रामायणमें वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्रीरघुनाथजी की कथाको तुलसीदास अपने अन्त:करणके सुखके लिये अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है। 

#नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
#रामायणे_निगदितं_क्वचिदन्यतोऽपि।
#स्वान्तःसुखाय_तुलसी_रघुनाथगाथा-
#भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ।।

वाल्मीकि रामायण के लंका काण्ड के सर्ग ११५/११६/  ११७/  ११८ में इस दिव्य घटना का वर्णन है एवं रामचरितमानस लंकाकांड के दोहा संख्या १०७ से १०९ तक में वर्णन है । गुरुजनों को यह बात पता होगा कि रावण ने माता सीता का हरण नही अपितु सीता कि छाया का हरण किया था जैसा कि राम चरित मानस में कहा भगवान कह रहे हैं ।

हे प्रिये! हे सुन्दर पातिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्यलीला करूँगा। इसलिये जबतक मैं राक्षसोंका नाश करूँ, तबतक तुम अग्नि में निवास करो॥श्रीरामजीने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्रीसीताजी प्रभुके चरणोंको हृदयमें धरकर अग्निमें समा गयीं। सीताजीने अपनी ही छायामूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके-जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥भगवान्ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्यको लक्ष्मणजीने भी नहीं जाना।

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। 
मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। 
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबहिं राम सब कहा बखानी। 
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता । 
तैसइ सील रूप सुबिनीता।
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। 
जो कछु चरित रचा भगवाना॥

अब प्रश्न उठता है कि यह प्रतिबिंब सीता या माया कि सीता क्या थी तो उत्तर है कि सीता जी का clone अर्था छाया रूप सीता थी । आज के कथित विज्ञान से जदा उन्नत वैदिक विज्ञान था और है देवताओं को इस  विज्ञान का भली भांति ज्ञान था । आप नेट पर human cloning के विषय मे पढ़ सकते हैं । 

अब यहाँ पर राम जी ने कहा कि तुम अग्नि में रहो अर्था अग्नि देव के साथा जा कर माता पार्वती के साथ रहो ( इसे आगे लेखेंग) में रहो और सब जब युद्ध समय आएगा तो मैं तुम्हें दुबारा बुलालूँगा भगवान के इस वचन को सुन कर माँ सीता ने ऐसा ही किया । अतः में जब युद्ध समाप्त हो जाता है तो अग्निपरीक्षा के अभिनय से उन्हें बुला लिया इसलिए । इसीलिए गोस्वामी जी कहते हैं 

प्रभुके वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गये। आकाशसे देवताआन बहुत-से फूल बरसाये  साताजी [ के असली स्वरूप] को पहले अग्रिमें रखा था। अब भीतरके साक्षी भगवान् उनको प्रगट  करना चाहते हैं ।। इसी कारण करुणा के भंडार  श्रीरामजीने लीलासे कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हें सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं ॥ 

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। 
नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ।
सीता प्रथम अनल महँ राखी। 
प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी ।
दो०-तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानी सब लागीं करै बिषाद॥

इसी कारण से वाल्मीकि रामायण में भगवान ने कुछ कड़े बात कहे हैं और वे जानते थे कि कुछ दुष्ट धर्म हीन इस अलैलिक भगवान के अवतार रहस्य को न जाने के सीता पर आक्षेप करंगे इसलिए भगवान ने एक साथ आपने दो कार्य किये एक तो अभिनय बस सीता कि पवित्रता के लिए कथित अग्नि परीक्षा और दूसरा माता सीता को पार्वती के पास  से अपने पास बुलाना । जब आप वाल्मीकि रामायण पढ़ेंगे तो लंका० के १०७ सर्ग में सभी देवता आये भगवान को इस कृत्य को न करने के लिए समझाने के लिए पर अग्नि देव नहीं आये । 

पश्यतस्तां तु रामस्य समीपे हृदयप्रियाम।
जो जनवादभयाद् राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा (वा.रा.६/१०५/११)

वे अपने स्वामीकी हृदयवल्लभा थीं उनके प्राणवल्लभ उन्हें अपने समीप देख रहे थे परंतु लोकापवादके भयसे राजा श्रीरामका हृदय उस समय विदीर्ण हो रहा था॥

ततो वैश्रवणो राजा यमश्च पितृभिः सह।
सहस्राक्षश्च देवेशो वरुणश्च जलेश्वरः ॥२॥
षडर्धनयनः श्रीमान् महादेवो वृषध्वजः।
कर्ता सर्वस्य लोकस्य ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः॥३॥
एते सर्वे समागम्य विमानैः सूर्यसंनिभैः।
आगम्य नगरी लङ्कामभिजग्मुश्च राघवम्॥४॥

अर्थात : इसी समय विश्रवा के पुत्र यक्षराज कुबेर , पितरो सहित, यमराज, देवताओं के स्वमी सहस्र नेत्र धारी इंद्र ,जलके अधिपति वरुण, त्रिनेत्रधारी श्रीमान् वृषभध्वज महा तथा सम्पूर्ण जगत्के स्रष्टा ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजी
ये सब देवता सूर्यतुल्य विमानोंद्वारा लङ्कापुरीमें आ
श्रीरघुनाथजीके पास गये॥२-४॥

और अंत मे  १०८ वे सर्ग में भगवान अग्नि उन्हें पार्वती के पास से लेके वहाँ उपस्थित हो गये यथा : 

तिच्छत्वा शुभं वाक्यं पितामहसमीरितम्। 
अनादाय वैदेहीमुत्पपात विभावसुः।।
विध्याथ चितां तां तु वैदेहीं हव्यवाहनः।
उत्तस्थौ मूर्तिमानाशु गृहीत्वा जनकात्मजाम्॥ 

ब्रह्माजीके कहे हुए इन शुभ वचनोंको सुनकर
मान अग्निदेव विदेहनन्दिनी सीताको (पिताकी भाँति)
में लिये चितासे ऊपरको उठे उस चिताको हिलाकर इधर-उधर बिखराते हुए दिव्य रूपधारी हव्यवाहन अग्निदेव वैदेही सीताको साथ लिये तुरंत ही उठकर खड़े हो गये॥२॥

अब प्रश्न खड़ा होता है कि अग्नि कि चिता क्यो बनाएगी तो उत्तर है कि जो clone/माया/छाया/प्रतिबिंब कि सीता कि सीता को जसी जिस तत्वों से बनाया गया था उस उसे उसके elementry form में बापस पहुँचने और अग्नि देव को सीता को पार्वती के पास से लाके पुनः वहां सीता को लाके दे देना । वास्तव में वह एक portal था या ये कह सकते हैं कि एक स्टार गेट था जो एक जिसे देवता एक लोक से दूसरे लोक में यात्र करते थे वह भी प्रकाश कि गति से यह कोई आश्चर्य कि बात नहीं है देवता अग्निद्वरा से जल द्वारा से पृथ्वी द्वारा से अपने लोको और अन्य लोकों में आया जाया करतें हैं और थे । पोर्टल की इस प्रक्रिया को महान् वैज्ञानिक N. Rosen और A.Einstein हमारे दुनियाँ को दूसरी दुनियाँ से जोड़ने वाले पुल का नाम देते हैं । और आपने भी इसे अनेको फिल्मों में देखा होगा जैसे Mr. Strange . और power rangers में भी । यह सारा सिद्धान्त हमारे शास्त्र का है जो पाश्चात्य जगत हमें बेच रहा है और हम अपने महान वैज्ञनिक ऋषयो कि इस उपहार को नहीं समझ पा रहे है । 

सर्वप्रथम अग्निदेवका अग्निद्वार से वास्तविक सीता को पंचवटी से माता पार्वतीके पास ले जाना फिर अग्नि परीक्षा के बहाने सीता जी को पुनः श्रीराम को लौटा देना । यह अग्निपोर्टल अग्नि की लपटों के समान चमकता है ,इसके चारों तरफ प्रकाश का घेरा होता है,इसलिये इसे अग्निद्वार कहते हैं । 

इस प्रकार के अग्निद्वरा , जल द्बारा , आकाश द्वारा, वायु द्वारा
से घटित प्रसङ्ग पूरे वैदिक वांग्मय में भरे पड़े हैं ।  अग्नि देव अपने इस कार्य को कूर्म पुराण और व्यास गीता  में बहुत ही सुंदर रुप में वर्णन करते हैं यथा :=====

सा प्रत्ययाय भूतानां सीता मायामयी पुनः ।
विवेश पावकं दीप्तं ददाह ज्वलनोऽपि ताम् ॥ 3४.१२९
(राम को ऐसा देखकर) मायावी सीता ने लोगों को
विश्वास दिलाने के लिए पुनः अग्नि में प्रवेश किया था औरअग्नि ने भी उस सीता को शीघ्र जला डाला था।

दग्ध्वा मायामयीं सीतां भगवानुग्रदीधितिः ।
रामायादर्शयत् सीतां पावकोऽभूत् सुरप्रियः ॥ 3४.१3०
इस प्रकार मायावी सीता को जलाकर भगवान् तेज
अग्निदेव ने राम को वास्तविक सीता के दर्शन करवाए थे,इसलिए अग्निदेव देवों को अत्यन्त प्रिय हुए।

प्रगृह्य भर्त्तुश्चरणौ कराभ्यां सा सुमध्यमा ।
चकार प्रणतिं भूमौ रामाय जनकात्मजा ॥ 3४.१3१
तब सुमध्यमा जनकपुत्री सीता ने, दोनों हाथों से राम का
चरण स्पर्श किये और भूमि पर झुककर राम को प्रणाम
किया।

दृष्ट्वा हृष्टमना रामो विस्मयाकुललोचनः ।
ननाम वह्निं सिरसा तोषयामास राघवः ॥ 3४.१3२
इस प्रकार (सोता को) देखकर आचर्य चकित नेत्रों वाले
वे राम हर्षित मनवाले हुए। राघव ने सिर झुकाकर प्रणाम
करके अग्निदेव को तृप्त किया था।

उवाच वह्निर्भगवान् किमेषा वरवर्णिनी ।
दग्धा भगवता पूर्वं दृष्टा मत्पार्श्वमागता ॥ 3४.१33
उस समय वे अग्निदेव से बोले, हे भगवन् ! आपने श्रेष्ठ
वर्ण वाली सीता को पहले क्यों जला दिया था? और अब
मैं अपने पार्श्वभाग में स्थित देख रहा हूँ (यह कैसे?)।

तमाह देवो लोकानां दाहको हव्यवाहनः ।
यथावृत्तं दाशरथिं भूतानामेव सन्निधौ ॥ 3४.१3४
तब संपूर्ण लोकों के दाहकर्ता, हव्यवाहन अग्निदेव ने
सभी लोगों के समक्ष दाशरथी राम को जैसा वृत्तान्त था,
कह सुनाया।

इयं सा मिथिलेशेन पार्वतीं रुद्रवल्लभाम् ।
आराध्य लब्ध्वा तपसा देव्याश्चात्यन्तवल्लभा ॥ 3४.१3५
यह देवी सीता पार्वती के समान प्रिय और परम साध्वी
है। शंकरप्रिया पार्वती की तपस्या के द्वारा आराधना करके. (राजा जनक ने) उसे प्राप्त किया था।

भर्त्तुः शुश्रूषणोपेता सुशीलेयं पतिव्रता ।
भवानीपार्श्वमानीता मया रावणकामिता ॥ 3४.१3६
या नीता राक्षसेशेन सीता भगवताहृता ।
मया मायामयी सृष्टा रावणस्य वधाय सा ॥ 3४.१3७
यह सीताजी पति की सेवा में परायण, पतिव्रता और
सुशील है। परन्तु रावण ने सीता की कामना की, तब मैंने
इन्हें पार्वती के पास रख दिया था। राक्षसराज रावण जिस
भगवती सीता को ले गया था, वह तो मैंने रावण का वध
करने की इच्छा से मायावी सीता की रचना की थी।

तदर्थं भवता दुष्टो रावणो राक्षसेश्वरः ।
मयोपसंहृता चैव हतो लोकविनाशनम् ॥ 3४.१3८
जिसके लिए आपने राक्षसेश्वर रावण को देखा (और
उसका वध किया), वह मायावी सीता को मैने समेट लिया
है और संसार का विनाशकारी रावण भी मारा गया है

गृहाण विमलामेनां जानकीं वचनान्मम ।
पश्य नारायणं देवं स्वात्मानं प्रभवाव्ययम् ॥ 3४.१3९
इसलिए आप मेरे कहने पर पवित्र जानकी को स्वीकार
करें और अपने स्वरूप को सब के उत्पत्ति कारण अविनाशी
देव नारायण स्वरूप ही जानें।

इत्युक्त्वा भगवांश्चण्डो विश्चार्चिर्विश्वतोमुखः ।
मानितो राघवेणाग्निर्भूतैश्चान्तरधीयत ॥ 3४.१४०
यह कहकर संसार के ज्वालारूप, विश्वतोमुख भगवान्
चण्ड (अग्नि) अन्तर्धान हुए और भगवान् राम भी मनुष्यों
के द्वारा सम्मानित होकर अन्तर्धान हो गए।

और वाल्मीकि रामायण के युद्ध० के १०८ सर्ग में उन्हें सहर्ष अपना ते हैं और कारण भी बताते हैं कि क्यो उन्होंने अग्नि परीक्षा के लिए कहा : ---- 

अवश्यं चापि लोकेषु सीता पावनमर्हति।
दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तःपरे शुभा ।।१३।।
'भगवन् । लोगोंमें सीताजीकी पवित्रताका विश्वास
दिलानेके लिये इनकी यह शुद्धिविषयक परीक्षा आवश्यक थी; क्योंकि शुभलक्षणा सीताको विवश होकर दीर्घकालतक रावणके अन्त:पुरमें रहना पड़ा है।

बालिशो बत कामात्मा रामो दशरथात्मजः।
इति वक्ष्यति मां लोको जानकीमविशोध्य हि ॥१४॥
यदि मैं जनकनन्दिनीकी शुद्धिके विषयमें परीक्षा
न करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा
ही मूर्ख और कामी है॥

अनन्यहृदयां सीतां मच्चित्तपरिरक्षिणीम्।
अहमप्यवगच्छामि मैथिली जनकात्मजाम्॥१५॥
'यह बात मैं भी जानता हूँ कि मिथिलेशनन्दिनी
जनककुमारी सीताका हृदय सदा मुझमें ही लगा रहता
है। मुझसे कभी अलग नहीं होता। ये सदा मेरा ही मन
रखती-मेरी इच्छाके अनुसार चलती हैं॥

इमामपि विशालाक्षी रक्षितां स्वेन तेजसा।
रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः ॥१६॥

'मुझे यह भी विश्वास है कि जैसे महासागर
अपनी तटभूमिको नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार रावण
अपने ही तेजसे सुरक्षित इन विशाललोचना सीतापर
अत्याचार नहीं कर सकता था॥

#प्रत्ययार्थं_तु_लोकानां_त्रयाणां_सत्यसंश्रयः।
#उपेक्षे_चापि_वैदेहीं_प्रविशन्ती_हुताशनम्॥१७॥
'तथापि तीनों लोकोंके प्राणियोंके मनमें विश्वास
दिलानेके लिये एकमात्र सत्यका सहारा लेकर मैंने
अग्निमें प्रवेश करती हुई विदेहकुमारी सीताको रोकनेकी
चेष्टा नहीं की॥

अतः रामायण के इस प्रसङ्ग को क्षेपक मिलावट कह कर इसी वैज्ञनिकता पर प्रश्न कड़ा करना ही है हमारे पूरे शास्त्र विज्ञान कि मोतियों से भरे पड़े है और हमारे कोई भी देवी देवता चरित्र हीन नहीं वे तो गङ्गा के समान पवित्र और सूर्य के समान चमकदार हैं । अपने भेड़ बुद्धि लगा के जन सामान्य को भटकाने का प्रयास न करें । 

#स्मार्त_प्रचण्ड_भैरव 

             
           ।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

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