ईसाई इस्लाम एक

--#छिन्नमस्ता_संस्कृति : #ओरिजिनल_सिन_थ्योरी --

आज से तीन दिन पहले मैंने आप सभी स्वजनों के समक्ष एक प्रश्न रखा था की " क्या मुझे इस्लाम पे लिखना चाहिए "।।
आप सभी का जवाब हाँ में था और मैंने लिखा भी और जब मैंने कुछ तथ्यों की तलाश में जब इंटरनेट खंगाला तो समझ मे आया की इस्लाम और ईसाई समुदाय एक ही सिक्के के दो पहलू है और दोनों की एक नीति है -- अपनी महत्वाकांक्षी विस्तारवादी नीति , जहाँ आज इस्लाम आज नंगा हो चुका है उसकी असलियत सब जान चुके है वही ईसाई समुदाय अपना काम बेहद शातिराना ढंग से और चुपके छुपके कर रहा है वो हमेसा हिन्दुओ को कुछ प्रलोभन , चंगाई सभा , ईश्वरीय चमत्कार ,गरीबी और अशिक्षा का प्रयोग धर्मान्तरण में करता है ।।

मैं आज से धर्मान्तरण में प्रयोग किये जाने वाले उन तथ्यों से आपको रूबरू कराऊंगा जिनका प्रयोग धर्मान्तरण के लिये किया जाता है , आज हम बात करेंगे महिलाओ के अधिकार की --

जब भी हम धर्म की बात करते है तो सबसे पहले एक बात सामने आती है धर्म मे महिलाओ की स्थिति क्या है ,किसी भी परिवार की सबसे अहम कड़ी है उस परिवार की महिला .... जिसे आप तोड़ लो बाकी सब टूट जाएंगे , परिवार में यदि एक महिला ने धर्मान्तरण कर लिया तो यकीन मानिए परिवार के सभी सदस्यों का धर्मान्तरण निश्चित है ,और ऐसा करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने हिन्दू धर्म मे स्त्रियां एक बंधुआ मजदूर है ऐसा प्रसारित किया और इसमें उन मशीनरियों का सहयोग किया नारीवादी संस्थाओ ने (बाकायदा पैसे लेकर , और सोची समझी नीति के तहत)।।

इन छद्म नारीवाद ने सनातन को सबसे ज्यादा तोड़ा और कुछ महिलाएं तो अनजाने में ही इस कुचक्र का हिस्सा बन गयी खैर इसपे कभी विस्तृत पोस्ट करूँगा अभी आज हम ईसाई समुदाय में महिलाओं की स्थिति देख लेते है जिसे एक पर्दे के पीछे रखा जाता है , अब समय है कि उस पर्दे को हटाया जाए ।।

हम जब भी बात करते है महिला अधिकारों की तो अनायास उँगली पश्चिमी देशों की महिलाओं की शक्तिशाली उपस्थित की ओर चली जाती है कि हमे वैसे ही अधिकार मिलने चाहिए , लेकिन कहा जाता है ना कि दूर के ढोल सुहावने होते है वही स्थिति यहाँ भी है --

पाँच सौ साल पहले जो ‘चर्च में सुधार’ (Reformation) हुआ उससे कैथोलिक चर्च का यूरोप के ऊपर से एकछत्र अधिकार हट गया । ऐसा प्रोटेस्टेंट जैसे ‘विरोधी’ और असहमत ईसाई आन्दोलनों के बनने से हुआ ।आधुनिक इवेंजलिकैल्स इसे जनतंत्र, स्वतंत्रता और समानता की ओर पहले तर्कसंगत कदम के रूप में देखते हैं ।
सच में ऐसा कुछ भी नहीं था। यह बाइबिल के मूल अर्थ पर वापस पहुँचने का एक प्रयत्न था। बाकी सभी झूठ था और खतरनाक काफिरों और मुशरीकों को जन्म देता था। इसका परिणाम था सोलहवीं शताब्दी का स्त्रियों का नरसंहार, जिसमें पीड़ितों का एक ही अपराध था, स्त्री होना। हम इसको ‘विच-बर्निंग’ (विचेस को जलाने) के नाम से जानते हैं। यह उन्नीसवीं शताब्दी तक चलता रहा । अगर हम लिंग समानता की बात करें तो स्त्रियों के नरसंहार के विषय में कैथोलिक ओर प्रोटेस्टेंट चर्च दोनों ही बराबर से दोषी हैं।

स्त्री-पुरुष सम्बन्धी मूल क्रिश्चियन मान्यताएं मूल क्रिश्चियन मान्यताओं में सबसे महत्वपूर्ण मान्यताएं हैं:-

(1) ‘गॉड’ ने #पुरुष (मैन) को अपनी ही ‘इमेज’ में बनाया। अत: यह ‘मैन’ ही समस्त सृष्टि का ‘लॉर्ड’ है। ‘मैन’ को चाहिए कि वह धरती को दबाकर आज्ञाकारिणी और वशवर्ती बना कर रखे तथा उससे खूब आनंद प्राप्त करे।

(2) ‘#गॉड’ ने प्रथम ‘मैन’ एडम की एक पसली से स्त्री (ईव) बनाई जो ‘मैन’ के मन-बहलाव के लिए बनाई गई। इस प्रकार स्त्री (ईव या वूमैन) बाद की रचना है। वह ‘मैन’ का केवल एक अंश है जो उसके मन-बहलाव के लिए बनी है।

(3) #नर_नारी का परस्पर स्वेच्छा और उल्लास से मिलना ही ‘मूल पाप’ (ओरिजिनल सिन) है।

इस ‘ओरिजिनल सिन’ के लिए ‘मैन’ को ‘शैतान’ के कहने पर ‘वूमैन’ ने फुसलाया। इसलिए ‘वूमैन’ ‘शैतान की बेटी’ है। वह पुरुष को सम्मोहित कर ‘मूल पाप’ यानी कामभाव यानी ‘शैतानियत’ के चंगुल में फंसाती है।

अत: वह सम्मोहक (सेडयूसर) है। ‘मूल पाप’ में पुरुष को खींचने का जो उसने अनुचित आचरण किया है,उस कारण वह ‘एडल्टरेस’ है, ‘एडल्टरी’ की दोषी है।

पुरुष को सम्मोहित करने के ही अर्थ में वह जादूगरनी है। पुरुष को सम्मोहित करना बुरा है,इसलिए वह बुरी जादूगरनी है।
अत: डायन (विच) है।
उसे यातना देना पुण्य कार्य है।

(4) #शैतान_गॉड_का_प्रतिस्पर्ध्दी_है।
‘गॉड’ और शैतान में निरन्तर युध्द चल रहा है। जीसस की ‘मिनिस्ट्री’ यानी पादरी मंडल लगातार शैतान के साम्राज्य के विरुध्द संघर्षरत है, ताकि अंतत: ‘गॉड’ की जीत हो।

शैतान ‘गॉड’ का शत्रु है।

शैतान के विरुध्द युध्द करना और युध्द में सब प्रकार के उपाय अपनाना हर आस्थावान क्रिश्चियन का कर्तव्य (रेलिजियस डयूटी) है।

(5) #ईसाई_महिलाओ_के_गुलाम_गैर_ईसाई  –
स्त्री को, गैर-क्रिश्चियन सभी पुरुषों को तथा इस धरती को अपने अधीन दबा कर रखना, आज्ञाकारी और वशवर्ती बनाकर रखना हर ‘फेथफुल क्रिश्चियन’ पुरुष का कर्तव्य है और यह कर्तव्य उसे बुध्दि और बल के हर संभव तथा अधिकतम उपयोग के द्वारा करना है।
इन्हीं मूलभूत मान्यताओं के कारण क्रिश्चिएनिटी में ‘क्रिश्चियन स्त्री’ को शताब्दियों तक ‘मैन’ की शत्रु और शैतान की बेटी तथा शैतान का उपकरण माना जाता रहा है। नर-नारी मिलन को ‘मूल पाप’ माना जाता रहा है। इस दृष्टि से विवाह भी वहां ‘पाप’ ही माना जाता रहा है परन्तु वह क्रिश्चियन विधि से होने पर तथा चर्च के नियंत्रण में वैवाहिक जीवन जीने पर अपेक्षाकृत ‘न्यूनतम पाप’ माना जाता रहा।

तब भी विवाहित स्त्री को मूलत: ‘अपवित्र’ ही माना जाता है। पवित्र स्त्री तो वह है जो किसी क्रिश्चियन मठ में दीक्षित मठवासिनी अर्थात् ‘नन’ है जिसने गरीबी, ‘चेस्टिटी’ तथा क्रिश्चियन पादरियों और चर्च की आज्ञाकारिता की शपथ ली है।

ननों को हठयोगियों जैसा कठोर शारीरिक तप करना पड़ता है। पादरी ‘सेलिबेट’ यानी अविवाहित होते हैं,जिसका अर्थ गैर-जानकार लोगों ने हिन्दी में ‘ब्रह्मचारी’ कर रखा है जो पूर्णत: गलत है।

‘सेलिबेट’ पादरी ‘नन्स’ के साथ उनके सम्मोहन के कारण प्राय: काम सम्बन्ध बनाते रहे हैं और उसके लिए दोषी भी ‘सेडयूसर’ ‘नन’ को ही माना जाता है।

(6) #रजस्वला (मासिक धर्म) एक शाप के करण -
क्रिश्चिएनिटी की उपर्युक्त पांचों मूल मान्यताओं से जुड़ी एक महत्वपूर्ण छठी मान्यता यह है कि स्त्री ने चूंकि पुरुष को बहला-फुसलाकर ‘मूल पाप’ में फंसाया, अत: ‘गॉड’ ने ‘ईव’ को शाप दिया।
इस शाप में मासिक धर्म, प्रसव पीड़ा, गर्भ धारण तथा सदा पुरुष की अधीनता में रहने और दंडित किये जाने आदि का शाप है।
कुल सात शापों से स्त्री श्रापित है।
किसी भी भूल पर उसे एक स्वस्थ मर्द के अंगूठे की मोटाई वाले कोड़े से दस से पचास
तक कोड़े मारना क्रिश्चियन पुरुष का सहज अधिकार और कर्तव्य है। अपराध गंभीर होने पर सौ या उससे ज्यादा कोड़े पड़ सकते हैं।

(7) #क्रिश्चिएनिटी_में_मातृत्व_भी_एक_अभिशाप_है।
किसी स्त्री का मां बनना ‘गॉड’ द्वारा उसे दंडित किए जाने का परिणाम है। संतान भी ‘मूल पाप’ का परिणाम होने के कारण वस्तुत: धरती पर पाप का प्रसार ही है।

केवल चर्च को समर्पित होने पर व्यक्ति इस ‘पाप’ के भार से इसलिए मुक्त हो जाता है, क्योंकि वह ऐसा करके उस जीसस की शरण में जाता है जिसने ‘क्रास’ पर टंग कर (सूली पर चढ़ कर) एडम और ईव तथा उनकी समस्त संतानों के द्वारा किए गए ‘मूल पापों’ का प्रायश्चित पहले ही सबकी ओर से कर लिया है।
जीसस ‘गॉड’ का ‘इकलौता बेटा’ है और केवल उसकी शरण में जाने पर ही मनुष्य ‘पाप’ से मुक्त होता है। ‘पाप’ का यहां मूल अर्थ है ‘ओरिजिनल सिन’ यानी रति सम्बन्ध रूपी पाप जिससे व्यक्ति गर्भ में आता और जन्म लेता है।
अत: व्यक्ति जन्म से ही पापी है।
क्रिश्चिएनिटी की ये सातों धारणाएं अभूतपूर्व हैं,अद्वितीय हैं। और संसार की कोई भी अन्य सभ्यता इनमें से एक भी मान्यता को नहीं मानती। ये केवल क्रिश्चिएनिटी में मान्य आस्थाएं हैं।

#वैदिक_साहित्य में एक सूत्र मिलता है --

कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्।

तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥

(महाभारत विदुरनीति)

अर्थात्- जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। जो तुम्हारी हिंसा करता है, तुम भी उसके प्रतिकार में उसकी हिंसा करो! इसमें मैं कोई दोष नहीं मानता, क्योंकि शठ के साथ शठता ही करने में उपाय पक्ष का लाभ है। श्रीकृष्ण जी ने भी ऐसा ही कहा है।

तो अब सभी विधर्मियो को उनकी ही भाषा मे जवाब देते है आइये एक तुलना करते है ---

#देवताओं_और_महापुरुषों के साथ उनकी अर्धांगिनियों के नाम भी जुड़े हुए हैं। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, माया- ब्रह्म, सावित्री- सत्यवान् आदि नामों से नारी को पहला और नर को दूसरा स्थान प्राप्त है। पतिव्रत, दया, करुणा, सेवा- सहानुभूति, स्नेह, वात्सल्य, उदारता, भक्ति- भावना आदि गुणों में नर की अपेक्षा नारी को सभी विचारवानों ने बढ़ा- चढ़ा माना है।

ऋग्वेद १०। ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है। ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—

‘‘ऋषिर्दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेति (२.११)।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)।’’

अर्थात् -
मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है।

ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत्।
ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥ ८४॥
इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥ ८५॥
श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥ ८६॥

#अर्थात्-

घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त को की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं।

#विशेष – 

 सनातन हिन्दू धर्म, जो कि सबसे अधिक संदेही संशयी भी है और सबसे अधिक आस्था वाला भी है । सबसे संशयी इसलिए क्योंकि इसने सबसे अधिक प्रश्न पूछे हैं और सबसे अधिक प्रयोग किये हैं । सबसे अधिक आस्था वाला इसलिए क्योंकि इसको सबसे गहरी अनुभूति है और सबसे विविध और सकारात्मक आध्यात्मिक ज्ञान है । वह वृहद् हिन्दू धर्म जो कि कोई रूढी या रूढ़ियों का समूह नहीं बल्कि जीवन का एक सिद्धांत है। जो कि कोई सामजिक ढांचा नहीं बल्कि भूत एवं भविष्य के सामाजिक विकास की आत्मा है । जो किसी को भी अस्वीकार नहीं करती परन्तु हर किसी को जाँचती और अनुभव करती रहती है और जाँचने और अनुभव करने के पश्चात उसे आत्मा के प्रयोग में लाती है । इस हिन्दू धर्म में हम भविष्य के विश्व धर्म की नींव देखते हैं। इस सनातन धर्म के कई ग्रन्थ हैं: वेद, वेदान्त, गीता, उपनिषद्, दर्शन, पुराण, तंत्र… पर उसका सबसे असली, सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ ह्रदय है जिसके अन्दर वह शाश्वत तत्व रहता है…

Comments

Popular posts from this blog

Dayand antarvasna

#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 2 "

।।सृष्टि बने कितने वर्ष हुये।।