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Showing posts from September, 2020

सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य भाग ― 5

मंत्रो के अर्थ में दयानंद जी की मनमानी  दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश में मंत्रों के अर्थ  लिखने में बड़ी चतुराई दिखाते हैं उनकी चतुराई को समझने का प्रयास करें मंत्र देखे  भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री । पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ ँ्ह पृथिवीं माहि ँ्सीः उनके अनुसार इस मंत्र का अर्थ देखें :-  जिसमें सब भूत प्राणी होते हैं इसलिए ईश्वर का नाम भूमि है शेष नामों का अर्थ आगे लिखेंगे। मंत्र के वास्तविक अर्थ पर भी दृष्टि डालें। हे स्वयंमातृण्णे !  तुम (भूः) सुखो की भावना करने वाली हो। (भूमि) भूमिनाम से प्रसिद्ध  हो। (अदिति) देवमाता हो ।(विश्वधाया)विश्व को पुष्ट (धारण) करने वाली हो।(विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री)सम्पूर्ण संसार को धारण करने वाली हो । पृथ्वी को कृपा करके देखो भूमि भागों को दृढ़ करो पृथ्वी को मत पीडा दो।  दयानंद जी ने  मंत्र का  क्या अर्थ किया है।कुछ समझ नहीं आता  यदि इस मंत्र में सभी नाम ईश्वर के है तो इस मंत्र का क्या अर्थ रह जायेगा। अब आप अगले मंत्र के दयानंदी अर्थ पर भी विचार करें। इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन...

सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य भाग-4

सत्यार्थप्रकाश में मंत्र की अशुद्धि-1 दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास के आरम्भ में कैवल्य उपनिषद का एक मंत्र लिखते है उनका लिखा वह मन्त्र अशुद्ध हैं उनका लिखा मंत्र इस प्रकार है:- स ब्रह्मा स विष्णुः स रूद्रस्स शिवस्सोsक्षरस्स परमः स्वराट्। सःइन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।। अब आप केवल्योपनिषद में वर्णित शुद्ध मंत्र को देखे जो प्रकार से है:- स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट् स एव विष्णुः स प्राणः सःकालोsग्निः स चन्द्रमा।  इस मंत्र के अर्थ में भी  दयानंद जी ने मनमानी की है उनका अर्थ इस प्रकार है :-  सब जग के बनाने से ब्रह्मा, सर्वत्र  व्यापक होने से विष्णु, दुष्टो को दंड देके रुलाने से रूद्र, मंगलमय सबका  कल्याणकर्ता होने से शिव, जो सर्वत्र व्यापक अविनाशी  स्वयं प्रकाशस्वरूप और (कालाग्नि) प्रलय में सबका काल और काल का भी काल है इसलिये परमेश्वर का नाम का कालाग्नि है। अब आप इस मंत्र का सीधा अर्थ देखे :- जो गीताप्रेस की पुस्तक उपनिषद अंक से लिया गया है । वही ब्रह्मा है वही शिव है वही इंद्र है वही अक्षर अविनाशी परमात्मा है वही विष्णु है ...

सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य भाग-3

दयानंद जी द्वारा मंगलाचरण का निषेध-2 सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास के अन्त में दयानंद जी लिखते है " जो आधुनिक ग्रंथ वा टीकाकारकों के श्री गणेशाय नमः, सीतारामाभ्याम् नमः, राधाकृष्णाभ्याम् नमः, श्रीगुरुचरणारविन्दाभ्याम् नमः, हनुमते नमः दुर्गायै नमः बटुकाय नमः, भैरवाय नमः, शिवाय नमः, सरस्वत्यै नमः, नारायणाय नमः इत्यादि लेख देखने में आते हैं इनको बुद्धिमान लोग वेद और शास्त्रों से विरुद्ध होने से मिथ्या ही समझते हैं। क्योंकि वेद और ऋषि मुनियों के ग्रंथों में कहीं ऐसा मंगलाचरण देखने में नहीं आता "  दयानंद जी का यहाँ मिथ्या लिख रहे है:- पूर्व में हम बता चुके हैं कि दयानंद सरस्वती स्वयं मंगलाचरण करते हैं और अन्य को ऐसा करने से रोकते है। सर्वप्रथम मंगलाचरण पर विचार करते है।मंगलाचरण किसे कहते ? मंगलाचरण दो शब्दों से मिलकर बना है  मंगल और आचरण  मंगल का अर्थ है कल्याणकारी, शुभ, हितकारक  आचरण का अर्थ है अभ्यास करना, अनुकरण करना, व्यवहार । मंगलाचरण का सीधा सा अर्थ है जो कल्याणकारी हो शुभकारक हो और हितकारक हो उसका अनुकरण करना , उसका अभ्यास करना, और अपने आचरण में लाना । वेद,वेदां...

#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 2 "

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#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 2 " " दयानंद जी द्वारा मंगलाचरण का निषेध " दयानंद जी सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में मंगलाचरण को अमंगलकारी बताते है।  वह  लिखते है कि ऐसा  (मंगलाचरण) हमको करना योग्य नहीं ।  दयानंद जी का ऐसा लिखना सत्य नहीं है। क्योंकि अपनी इस पुस्तक का आरम्भ ही  मंगलाचरण से करते है । सत्यार्थप्रकाश की  भूमिका में सबसे पहले  मंगलाचरण ही है । दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका के  आरम्भ में " ओ३म् सच्चिदानन्दायेश्वराय नमो नमः"  लिखा है;  यह क्या है ? क्या यह मंगलाचरण नहीं है?   धर्मग्रन्थों में किये जाने वाले मंगलाचरण को अमंगलकारी बताते हुये उसी सत्यार्थप्रकाश  में  वे आगे लिखते हैं कि "  जो आदि मध्य और अंत में मंगल करेगा तो उसके ग्रंथ में आदि मध्य और मध्य तथा अंत के बीच में जो कुछ लेख होगा वह अमंगल ही रहेगा। " दयानंद जी स्वयं तो सत्यार्थप्रकाश के आरम्भ में  मंगलाचरण करके अपने ग्रंथ को तो मंगलकारी बनाना चाहते हैं  लेकिन दूसरों को ऐसा करने से रोकते हैं। उनका यह विचार न तो वेदानुकूल है औ...

#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य " भाग 1"

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#सत्यार्थप्रकाश_का_असत्य  " भाग 1" हरि  ओम की निन्दा सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास के अन्त  में दयानंद सरस्वती जी लिखते हैं " जो वैदिक लोग वेद के आरंभ में " हरि ओम " लिखते और पढ़ते हैं यह  पौराणिक  और तांत्रिक  लोगों  की  मिथ्या  कल्पना से  सीखे है " । सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास के अंत में दयानंद जी के द्वारा लिखी गई यह बात असत्य है। सनातन-वैदिक विद्वान वेदपाठ से पूर्व और पाठ समाप्ति पर " हरि: ओम " शब्द का उच्चारण करते हैं। वह मिथ्या नहीं है; अपितु धर्म ग्रंथों में ऐसा बोलने और लिखने के लिए स्पष्ट रूप से कहा गया है।  महाभारत के " षष्ठ खण्ड" के अन्त में महाभारत महात्म्य के अन्तिम श्लोक में ऐसा करने का आदेश है । ऐसा ही श्लोक हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के 132 अध्याय में भी है। वह प्रमाण इस प्रकार है:- "वेदे रामायणे पुण्ये भारते भरतर्षभ । आदौ चान्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।" हे भरतभूषण!  वेद, रामायण तथा पवित्र महाभारत के आदि मध्य और अंत में सर्वत्र श्रीहरि का गान किया जाता है। इस श्लोक से ...