तुलसी दास रामायण सत्यता प्रमाण
#प्रश्न : राम जी ने सीता जी का त्याग क्यों किया ?
और
इस प्रसंग के कारण आर्य समाजी उत्तर कांड को प्रक्षेप कहते हैं । कुछ मानसिक रोगी श्री प्रभु के चरिचत्र पर प्रश्न उठाने का दुःसाहस करते हैं । 😠😠😠😠😠😠😠😠
#उत्तर : सब से पहले तो हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि राम और सीता में सर्वदा अभेद है यदि कोई राम और सीता को अलग समझता है तो यह उसका अज्ञानता मात्र ही है ।
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से राम के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायणें हैं।
वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण के उत्तर कांड में यह कथा वर्णित है कि धोबी के कहने से प्रभु ने जगदम्बा सीता को लक्ष्मण के द्वारा वन में छुड़वा दिया ।
इस कथा के अस्त्र बनाके वामी चामी आर्य नामाजी सामान्य जनता जो राम के रहस्यों से अनभिज्ञ होते हैं उन्हें बरगलाने का प्रयत्न करते हैं । इस भौतिक युग में एक तो लोग धर्म ग्रथों से और गुरुओं से दूर होते जा रहे हैं छद्म गुरुओ के कारण और टीवी सीरियल और pdf आदि से कुछ लोग समय निकाल के कुछ सीख भी जाते हैं तो भी अनेकों प्रश्न उठते हैं जिनका सामान्य लोग उतर नहीं दे पाते और उक्त प्रसंग को प्रक्षेप कह देते हैं हो अनुचित है ।
सर्वप्रथम तो यह ज्ञात हुआ चाहिए कि वर्तमाम वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण उतना ही है जितना महर्षि वाल्मीकि ने लव और कुछ को पढ़ाया था ।
बहुत से लोग विशेषतः आर्य समाजी एवं ओशोवादी, यहां तक कि कुछ श्रद्धेय पीठाधीश्वर गण भी, यह कहते और मानते हैं कि वाल्मीकीय रामायण का उत्तरकांड प्रक्षिप्त है। साथ ही यह भी कि तुलसीदास जी ने उसी प्रक्षिप्तांश को आगे बढ़ावा देते हुए उत्तरकांड लिखा। हालांकि श्रीकरपात्री स्वामी जी रामायण मीमांसा में इनका खंडन कर ही चुके हैं। किन्तु कुछ लघु प्रयास हमारा भी रहेगा :-
बृहद्धर्म्मोपपुराण के पूर्वखण्ड में वर्णित ब्रह्म-वाल्मीकि संवाद के अंतर्गत अष्टादशतत्वरूप महामंत्रात्मक रामायण कवच के अंत में ब्रह्माजी कहते हैं "रामायणं कुरु सप्तकाण्डम्", अर्थात् हे वाल्मीकि ! अब तुम सात कांड वाली रामायण रचना में तत्पर हो जाओ।
स्वयं वाल्मीकि जी की भी लेखनी के अनुसार वाल्मीकिरामायण का २४००० श्लोकों ,५०० सर्ग और उत्तर काण्ड सहित ६ और काण्ड में रचना का बालकाण्ड में स्पष्ट उल्लेख मिलता है –
“चतुर्विंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषि: !
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्काण्डानि तथोत्तरम् ।।(बाल०४/२)
बृहद्धर्म्मोपपुराण के रामायण कीर्तन प्रसङ्ग में दुर्गादेवी अपनी सखियों को बताती हैं कि किस अवसर पर रामायण के किस कांड का पाठ करना चाहिए। उसमें सभी कांडों की महत्ता बताने के बाद निम्न श्लोक है :-
यः पठेत् शृणुयाद्वापि कांडमभ्युदयोत्तरम्।
आनंदकार्ये यात्रायां स जयी परतोऽत्र च॥
अर्थात्, जो व्यक्ति आनन्दजनक कार्य अथवा यात्राकाल में उत्तरकांड का पाठ करता है या श्रवण करता है, वह इस लोक एवं परलोक में जय प्राप्त करता है।
स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी श्रीकृष्णद्वैपायनवेदव्यास जी को महाभारत लिखने हेतु काव्यबीजशास्त्र का उपदेश करने के समय बताते हैं :-
पंचविंशतिसाहस्री संहिता सप्तकांडिका।
सर्गै: प्रबन्धबहुला सरस्वत्या अनुग्रहात्॥
अर्थात्, मैंने सरस्वती की कृपा से पच्चीस हजार श्लोकों में रामायण संहिता की रचना की है जिसमें कई सर्ग और सात कांड हैं।
यहाँ यह शंका नहीं होनी चाहिए कि यहां पच्चीस हजार श्लोक क्यों कहा ? वर्तमान में हम जो वाल्मीकीय रामायण देख रहे हैं, वह उतना ही है जितना लव कुश को पढ़ाया गया था। शेष एक हज़ार श्लोकों की कथा को गोपनीय रखकर वाल्मीकि जी ने आनंद एवं अद्भुतादि रामायणों के कथाविस्तार का कार्य किया।
बृहद्धर्म्मोपपुराण में रामायण कवच का वर्णन है जिसे प्रत्येक द्विजाति रामायण पाठक को पाठ से पूर्व पढ़ना चाहिए, ऐसा निर्देश है।
उक्त प्रसङ्ग का आंनद रामायण के अनुसार हम बताते हैं जिस में यह पता चलेगा कि भगवान ने भगवती का त्याग क्यों किया ?
आनंद रामायण के जन्मकाण्ड के द्वितीय सर्ग के 33 वे श्लोक से अनुशीलन करने से इस रहस्य का उद्घाटन होता है कुछ इस तरह :--
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स्थित्वा ता मासमेकं तु जग्मुर्देश निजं निजम् ।
अथैकदा तु श्रीरामः सुमेधां जनकं तथा ॥३३॥
सीतायाः पुरतः प्राह गुह्यं रहसि हस्थितम् ।
सीतामदृष्ट्वा सान्निध्ये क्षणाच विरहेण ताम् ॥३४॥
मयाऽऽगत्य तन्मुखेन्दुसुधया स्वास्थ्यमाप्यते ।
आत्मानं विह्वलं दृष्ट्वा सीतासानिध्यमाश्रये ॥३५।।
ये रानियां एक महीना अयोध्यामें रहकर अपने-अपने देशोंको लौट गयीं। एक दिन जब कि सुमेधा, जनक, सीता तथा रामचन्द्र एकान्तमें थे तब रामने कहा-हे महाराज ! सीता को अपने पास न देख तथा क्षणभर भी उनसे वियुक्त होकर मैं नहीं रह पाता । जब सीताके पास पहुँचजाता हूँ तो इनको मुखचन्द्र सुधासे स्वस्थ हो जाता है। जिस समय मुझमें कुछ भी घबराहट होती है, उस समय में सीताके ही समीप रहता हूँ ॥
अधुना जानकी दृष्ट्वा कामो मेऽतीव बाधते ।
पञ्चमासोर्ध्वतः संग गर्हयन्ति मुनीश्वरा ॥३६॥
प्रसूत्यो पश्चमासैः स्त्री स्वास्थ्यं प्राप्यते पुनः ।
पञ्चमासैविंना सङ्गाद्दंपत्योः क्षीणतेरिता ॥३७||
अत्र किं करणीयं हि बद त्वं श्वशुराद्य माम् ।
चेस्प्रेषणीया सीतेयं मिथिलां प्रति वै मया ॥३८॥
इस समय सीताको दखकर मुझे कामपीड़ा हो
रही है और मुनियों की सलाह यह है कि गर्भावान हो जानेपर पांच महीने बाद स्त्रीप्रसङ्ग करना निन्दित है
प्रसव हो जानेपर पांच महीने बाद ही स्त्री स्वस्थ होती है। बिना पांच महीने बीते प्रसङ्ग केरने से दोनों की हानि ही हानि है। ऐसे असमञ्जस के समय मुझे करना चाहिये, सो आप बताइये।यदि में सीताको मिथिला भेज देता हूँ तो मुझे भी वहां जाना पड़ेगा।
तर्हि तत्रापि मे गन्तुं भविष्यति समुद्यमः ।
किंचित्कालं तु सीताया वियोगो येन मे भवेत् ।।३९।।
उपायः स विधातव्यश्चिन्तितोऽस्ति मयाऽपि च । लोकापवादमीत्याऽहं रजकोक्तच्छलादपि ॥४०॥
गङ्गाया दक्षिणे तीरे वाल्मीकेराश्रमे शुभे ।
त्यजामि जानकी शुद्धां किश्चित्कालांतरात्पुनः॥४१।।
एनां समानयिष्यामि प्रत्ययं मां प्रदास्यति ।
ततोऽनया चिरं कालं नानाभोगान् भजाम्यहम्॥४३ll
किन्तु मैं कुछ दिन तक सोतासे अलग रहना चाहता हूँ। जिस तरह मेरी इच्छा पूर्ण हो, यही इस समय करना चाहिए। मैंने तो यह सोच रखा है कि लोकापवादके डर से अथवा उस घोबीके व्याजसे गङ्गाके दक्षिण तटपर वाल्मीकि के पवित्र आश्रममें
कुछ समयके लिए परम शुद्ध जानकीको छोड़ दू। थोड़े दिन बाद वापस ले आऊँगा: फिर मैं इनके साथ चिरकालतक नाना प्रकारके भोगों को भोगूगा ।
जनकाद्य त्वया तत्र निजपत्न्या सुमेधया ।
वाल्मीकेराश्रमे गत्वा स्थेयं वर्षाणि पञ्च वै॥४३॥
तथेत्यंगीचकाराथ जनकोऽपि सुमेधया ।
सीताऽप्यंगीचकाराथ विहस्य तद्वचः पतेः ॥४४॥
अथ रामो ददावाज्ञां सस्त्रियं जनक मुदा ।
स गत्वा मिथिलाराज्ये स्त्रीय सस्थाप्य मंत्रिणम्।। ५।।
ययो सुमेधया शीन वाल्मीकेराश्रमं मुदा । किंचिदासीदाससैन्यवाजिवारणवेष्टितः ॥४६॥
उस समय आपको अपनी सुमेधाके साथ वाल्मोकि के आश्रमपर जाकर पाँच वर्ष पर्यन्त निवास करना होगा ॥ सुमेधा और जनक ने रामकी सलाह स्वीकार की और सीताने भी हँसकर पतिका कहना मान लिया ।। इसके अनन्तर रामने जनकको अपने देश जानेकी आज्ञा दी। वे अपने देश गये और राज्यका सब भार मंत्रीपर छोड़कर अपनी स्त्री सुमेधा के साथ वाल्मीकि ऋषिके आश्रमको चल दिये ।चलते समय अपने साथ कुछ दास, दासी, सैनिक तथा हाथी-घोड़े भी ले लिये ॥
नानोपचारान्सीतार्थ संगृह्य शकटादिभिः ।
चकार गेहं विपुले बाल्मीकेश सुखावहम् ।।४७||
सर्वसंपत्तिसंयुक्तं बहुगोम हिपीयुतम् ।
पूरित धान्यसंघेश्च वस्राभरणादिभिः ।।४८।।
कासारोपवनारामपुष्पवाटिशतावृतम् ।
गवाक्षचन्द्रकान्तानां कपाटैश्च समन्वितम् ।।४९।।
कृष्णागुरुसकपूरोशीरमाल्यादिमोदितम् । कांचनीशृंखलाबद्धरत्नपर्यङ्कमण्डितम् ॥५०॥
हंसपारावतपिककेकीशुकनिनादितम्
मुक्तागुच्छवितानाः शोभित चित्रचिनितम् ।।५१।।
सीताके लिए बहुत-सी सामग्रियों गाड़ियोंपर लदवाकर साथ ले गये। महर्षि वाल्मोकिके आश्रमको जनक ने सब सुखोका भण्डार बना दिया ॥ जानकाजीके वहाँ पहुंचनेपर वह आश्रम सब सम्पत्तियों एवं बहुत-सी गौओं और भैसोंसे भर गया। विविध प्रकारके अन्नों और भांति-भांतिक वस्त्राभूषणोंसे वह पूर्ण हा गया आश्रम के पास सैकड़ों पोखरे, उपवन, बगीचे
बावली तथा कुएं तैयार हो गये । चन्द्रकान्त मणिके झरोखों तथा फाटको वाले भव्य भवन बने ।। कृष्णागुरु, कपूर, खस तथा विविध प्रकारके सुगन्धित पुष्पो से वह आश्रम सुगन्धमय हो गया। जगह-जगह- पर सोने की जंजीरोसे सजे रत्नों के पलंग पड़े हुए थे ॥ हस, कबूतर, कोयल, मयूर तथा तोते के शब्दोंसे वह आश्रम शब्दायमान हो रहा था। यत्र तत्र मोतियोंकी झालरवाली चाँदनियाँ टॅगी हुई थीं और बहुत-सी
तसबीरें भी जहां-तहाँ टेंगी थीं।।
एवं मनोहरं गेहं सीतार्थ जनकोऽकरोत् ।
श्रीः साक्षाद्गतुमुचुक्ता यस्मिन्निव सितु चिरम् ।।१२।।
किं दुर्लभं हि तत्रास्ति वर्णनीयं मयाऽद्य किम् ।
यस्या नेत्रकटाक्षेण शक्रादीनां विभूतयः ।।५३।।
वाल्मीकये सर्ववृत्तं जनकोऽपि न्यवेदयत् ।
मुनिश्चाप्यतिसंतुष्टो मेने स्वतपसः फलम् ॥५४॥
जनकजीने सीता के लिए इस प्रकार का सुन्दर भवन बनाकर तैयार करवाया। यदि ऐसा दिव्य भवन साताजी के वास्ते बन गया तो इसमें आश्चय ही क्या है। जहां निवास करने के
निमित्त साक्षात् लक्ष्मीजी जाने वाली हो, वहाँ कोन वस्तु दुर्लभ हो सकती है । जिसके कटाक्षमात्रसे इन्द्रादि
देवताओंकी भी सम्पत्तियाँ बनती बिगड़ती है। उसके विषयों में कहाँ तक वर्णन करूंगा। जनकजी ने महर्षि वाल्मीकि को भी वह सब बातें बतला दी, जिन्हें सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और सीता के उस भावी आगमनको उन्होंने अपनी तपस्याका फल समझा ।।
उक्त प्रसङ्ग को पढ़ने से तो यह स्पष्ट हो जता है कि त्याग किस प्रकार हुआ है । अब भी किन्हीं को संदेह है तो यह उनकी निजि दिमाग कि समस्य है वे किसी चिकित्सक से सम्पर्क साधें ।
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अब कुछ बातें ध्यान रहे उक्त प्रसङ्ग के बारे में :~~~
१) भगवान ने भगवती का वास्तविक त्याग नहीं किया अपितु अभिनय किया ।
२) राम के आदेश पर जनक जी ने वहाँ भगवती के लिए सारा प्रबन्ध कर दिया ।
३) दाम्पत्य जीवन में इसे यह सिख लेना चाहिए कि गर्वधान के बाद संसर्ग न करे और प्रसव के पांच माह बाद करे ।
४)गर्वधान के बाद स्त्रियों में भीन्न भिन्न प्रकार कि इच्छा होती है वन घूमना आदि आदि । एवं सीता जी ने स्वयं इच्छा कि थी कि वे ऋषियों कि सेवा करनी चाहती हैं ।
५) इसी प्रसङ्ग में पिंगला स्त्री की कथा भी देखना चाहिए ।
६) इस कथा से यह सन्देश प्रभु देना चाहते थे कि यदि पिता का आश्रय पुत्र पर न हो पर माता अगर योग्य हो विदुषी हो तो तब भी वह अपने पुत्र को इतना योग्य बना सकती है कि वह बाल्यावस्था में भी हनुमाम अंगद आदि जैसे महावीरों को परास्त कर सके जो भगवती सीता ने लव कुश के माध्यम् से कर के दिखा दिया ।
त्याग कारण :---
A) सामाजिक कारण : किसी कारण वश धर्म पे चलने बाली स्त्री पति से स्थाई या अस्थाई रूप से अलग हो जाये पर यदि वह योग्य है तो अपने पुत्रों को धर्मानुरूप बना सकती है ।
B ) पारिवारिक कारण : भगवती को वन विहार कि इच्छा है तो प्रभु ने जनक के माध्यम से उन्हें वहाँ भेजा ।
C) राजनैतिक कारण : प्रजा में जो सीता जी के प्रति कुछ लोगों के द्वारा बातें कहीं जा रही हैं वह अधिक प्रचारित न हो उसे तुरंत समान हो जाये इस के लिए अपनी पारिवारिक , सामाजिक कारण इसे द्वारा पूरित हो जाये इसीलिए भगवती को वन में भेजा ।
वास्तव में यदि गहराई से इस बात को देखा जाए भगवती सीता स्वंय अपनी इच्छा से वन में गयीं और जो कलङ्क था वह तो माध्यम मात्र था । एवं इन सभी क्रिया कलापों के करने के बाद वापस आती हैं और लीला वस धरती में समा जाती हैं और एक वर्ष के बाद पुनः राम के पास आती हैं और अपने सायुज्य को प्राप्त करती हैं हालांकि वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण में पुनः आगम कि कथा नहीं पर आंनद रामायण में विस्तृत है ।
यदि लिखा जाए तो एक स्वत्रंत ग्रन्थ इस पर ही हो जये ।
तो कोई भी आक्षेप लांछन प्रश्न आरोप लगाने से पहले श्राद्ध , जिज्ञासा आस्था और तर्क का सहारा अवश्य लें ।
तो भगवान अन्तन है भगवती सीता अन्तन हैं कथा अन्तन हैं ।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
भावार्थ-
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।
#रामो_विग्रह_वान_धर्म: भगवान स्वंय धर्म के मूर्त रूप हैं उनके द्वारा किया गया कोई भी कृति अधर्म नहीं हैं ।
।।🚩🚩 श्री राम जय राम जय जय राम🚩🚩 ।।
और
इस प्रसंग के कारण आर्य समाजी उत्तर कांड को प्रक्षेप कहते हैं । कुछ मानसिक रोगी श्री प्रभु के चरिचत्र पर प्रश्न उठाने का दुःसाहस करते हैं । 😠😠😠😠😠😠😠😠
#उत्तर : सब से पहले तो हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि राम और सीता में सर्वदा अभेद है यदि कोई राम और सीता को अलग समझता है तो यह उसका अज्ञानता मात्र ही है ।
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से राम के अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायणें हैं।
वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण के उत्तर कांड में यह कथा वर्णित है कि धोबी के कहने से प्रभु ने जगदम्बा सीता को लक्ष्मण के द्वारा वन में छुड़वा दिया ।
इस कथा के अस्त्र बनाके वामी चामी आर्य नामाजी सामान्य जनता जो राम के रहस्यों से अनभिज्ञ होते हैं उन्हें बरगलाने का प्रयत्न करते हैं । इस भौतिक युग में एक तो लोग धर्म ग्रथों से और गुरुओं से दूर होते जा रहे हैं छद्म गुरुओ के कारण और टीवी सीरियल और pdf आदि से कुछ लोग समय निकाल के कुछ सीख भी जाते हैं तो भी अनेकों प्रश्न उठते हैं जिनका सामान्य लोग उतर नहीं दे पाते और उक्त प्रसंग को प्रक्षेप कह देते हैं हो अनुचित है ।
सर्वप्रथम तो यह ज्ञात हुआ चाहिए कि वर्तमाम वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण उतना ही है जितना महर्षि वाल्मीकि ने लव और कुछ को पढ़ाया था ।
बहुत से लोग विशेषतः आर्य समाजी एवं ओशोवादी, यहां तक कि कुछ श्रद्धेय पीठाधीश्वर गण भी, यह कहते और मानते हैं कि वाल्मीकीय रामायण का उत्तरकांड प्रक्षिप्त है। साथ ही यह भी कि तुलसीदास जी ने उसी प्रक्षिप्तांश को आगे बढ़ावा देते हुए उत्तरकांड लिखा। हालांकि श्रीकरपात्री स्वामी जी रामायण मीमांसा में इनका खंडन कर ही चुके हैं। किन्तु कुछ लघु प्रयास हमारा भी रहेगा :-
बृहद्धर्म्मोपपुराण के पूर्वखण्ड में वर्णित ब्रह्म-वाल्मीकि संवाद के अंतर्गत अष्टादशतत्वरूप महामंत्रात्मक रामायण कवच के अंत में ब्रह्माजी कहते हैं "रामायणं कुरु सप्तकाण्डम्", अर्थात् हे वाल्मीकि ! अब तुम सात कांड वाली रामायण रचना में तत्पर हो जाओ।
स्वयं वाल्मीकि जी की भी लेखनी के अनुसार वाल्मीकिरामायण का २४००० श्लोकों ,५०० सर्ग और उत्तर काण्ड सहित ६ और काण्ड में रचना का बालकाण्ड में स्पष्ट उल्लेख मिलता है –
“चतुर्विंशत्सहस्राणि श्लोकानामुक्तवानृषि: !
तथा सर्गशतान् पञ्च षट्काण्डानि तथोत्तरम् ।।(बाल०४/२)
बृहद्धर्म्मोपपुराण के रामायण कीर्तन प्रसङ्ग में दुर्गादेवी अपनी सखियों को बताती हैं कि किस अवसर पर रामायण के किस कांड का पाठ करना चाहिए। उसमें सभी कांडों की महत्ता बताने के बाद निम्न श्लोक है :-
यः पठेत् शृणुयाद्वापि कांडमभ्युदयोत्तरम्।
आनंदकार्ये यात्रायां स जयी परतोऽत्र च॥
अर्थात्, जो व्यक्ति आनन्दजनक कार्य अथवा यात्राकाल में उत्तरकांड का पाठ करता है या श्रवण करता है, वह इस लोक एवं परलोक में जय प्राप्त करता है।
स्वयं आदिकवि वाल्मीकि जी श्रीकृष्णद्वैपायनवेदव्यास जी को महाभारत लिखने हेतु काव्यबीजशास्त्र का उपदेश करने के समय बताते हैं :-
पंचविंशतिसाहस्री संहिता सप्तकांडिका।
सर्गै: प्रबन्धबहुला सरस्वत्या अनुग्रहात्॥
अर्थात्, मैंने सरस्वती की कृपा से पच्चीस हजार श्लोकों में रामायण संहिता की रचना की है जिसमें कई सर्ग और सात कांड हैं।
यहाँ यह शंका नहीं होनी चाहिए कि यहां पच्चीस हजार श्लोक क्यों कहा ? वर्तमान में हम जो वाल्मीकीय रामायण देख रहे हैं, वह उतना ही है जितना लव कुश को पढ़ाया गया था। शेष एक हज़ार श्लोकों की कथा को गोपनीय रखकर वाल्मीकि जी ने आनंद एवं अद्भुतादि रामायणों के कथाविस्तार का कार्य किया।
बृहद्धर्म्मोपपुराण में रामायण कवच का वर्णन है जिसे प्रत्येक द्विजाति रामायण पाठक को पाठ से पूर्व पढ़ना चाहिए, ऐसा निर्देश है।
उक्त प्रसङ्ग का आंनद रामायण के अनुसार हम बताते हैं जिस में यह पता चलेगा कि भगवान ने भगवती का त्याग क्यों किया ?
आनंद रामायण के जन्मकाण्ड के द्वितीय सर्ग के 33 वे श्लोक से अनुशीलन करने से इस रहस्य का उद्घाटन होता है कुछ इस तरह :--
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स्थित्वा ता मासमेकं तु जग्मुर्देश निजं निजम् ।
अथैकदा तु श्रीरामः सुमेधां जनकं तथा ॥३३॥
सीतायाः पुरतः प्राह गुह्यं रहसि हस्थितम् ।
सीतामदृष्ट्वा सान्निध्ये क्षणाच विरहेण ताम् ॥३४॥
मयाऽऽगत्य तन्मुखेन्दुसुधया स्वास्थ्यमाप्यते ।
आत्मानं विह्वलं दृष्ट्वा सीतासानिध्यमाश्रये ॥३५।।
ये रानियां एक महीना अयोध्यामें रहकर अपने-अपने देशोंको लौट गयीं। एक दिन जब कि सुमेधा, जनक, सीता तथा रामचन्द्र एकान्तमें थे तब रामने कहा-हे महाराज ! सीता को अपने पास न देख तथा क्षणभर भी उनसे वियुक्त होकर मैं नहीं रह पाता । जब सीताके पास पहुँचजाता हूँ तो इनको मुखचन्द्र सुधासे स्वस्थ हो जाता है। जिस समय मुझमें कुछ भी घबराहट होती है, उस समय में सीताके ही समीप रहता हूँ ॥
अधुना जानकी दृष्ट्वा कामो मेऽतीव बाधते ।
पञ्चमासोर्ध्वतः संग गर्हयन्ति मुनीश्वरा ॥३६॥
प्रसूत्यो पश्चमासैः स्त्री स्वास्थ्यं प्राप्यते पुनः ।
पञ्चमासैविंना सङ्गाद्दंपत्योः क्षीणतेरिता ॥३७||
अत्र किं करणीयं हि बद त्वं श्वशुराद्य माम् ।
चेस्प्रेषणीया सीतेयं मिथिलां प्रति वै मया ॥३८॥
इस समय सीताको दखकर मुझे कामपीड़ा हो
रही है और मुनियों की सलाह यह है कि गर्भावान हो जानेपर पांच महीने बाद स्त्रीप्रसङ्ग करना निन्दित है
प्रसव हो जानेपर पांच महीने बाद ही स्त्री स्वस्थ होती है। बिना पांच महीने बीते प्रसङ्ग केरने से दोनों की हानि ही हानि है। ऐसे असमञ्जस के समय मुझे करना चाहिये, सो आप बताइये।यदि में सीताको मिथिला भेज देता हूँ तो मुझे भी वहां जाना पड़ेगा।
तर्हि तत्रापि मे गन्तुं भविष्यति समुद्यमः ।
किंचित्कालं तु सीताया वियोगो येन मे भवेत् ।।३९।।
उपायः स विधातव्यश्चिन्तितोऽस्ति मयाऽपि च । लोकापवादमीत्याऽहं रजकोक्तच्छलादपि ॥४०॥
गङ्गाया दक्षिणे तीरे वाल्मीकेराश्रमे शुभे ।
त्यजामि जानकी शुद्धां किश्चित्कालांतरात्पुनः॥४१।।
एनां समानयिष्यामि प्रत्ययं मां प्रदास्यति ।
ततोऽनया चिरं कालं नानाभोगान् भजाम्यहम्॥४३ll
किन्तु मैं कुछ दिन तक सोतासे अलग रहना चाहता हूँ। जिस तरह मेरी इच्छा पूर्ण हो, यही इस समय करना चाहिए। मैंने तो यह सोच रखा है कि लोकापवादके डर से अथवा उस घोबीके व्याजसे गङ्गाके दक्षिण तटपर वाल्मीकि के पवित्र आश्रममें
कुछ समयके लिए परम शुद्ध जानकीको छोड़ दू। थोड़े दिन बाद वापस ले आऊँगा: फिर मैं इनके साथ चिरकालतक नाना प्रकारके भोगों को भोगूगा ।
जनकाद्य त्वया तत्र निजपत्न्या सुमेधया ।
वाल्मीकेराश्रमे गत्वा स्थेयं वर्षाणि पञ्च वै॥४३॥
तथेत्यंगीचकाराथ जनकोऽपि सुमेधया ।
सीताऽप्यंगीचकाराथ विहस्य तद्वचः पतेः ॥४४॥
अथ रामो ददावाज्ञां सस्त्रियं जनक मुदा ।
स गत्वा मिथिलाराज्ये स्त्रीय सस्थाप्य मंत्रिणम्।। ५।।
ययो सुमेधया शीन वाल्मीकेराश्रमं मुदा । किंचिदासीदाससैन्यवाजिवारणवेष्टितः ॥४६॥
उस समय आपको अपनी सुमेधाके साथ वाल्मोकि के आश्रमपर जाकर पाँच वर्ष पर्यन्त निवास करना होगा ॥ सुमेधा और जनक ने रामकी सलाह स्वीकार की और सीताने भी हँसकर पतिका कहना मान लिया ।। इसके अनन्तर रामने जनकको अपने देश जानेकी आज्ञा दी। वे अपने देश गये और राज्यका सब भार मंत्रीपर छोड़कर अपनी स्त्री सुमेधा के साथ वाल्मीकि ऋषिके आश्रमको चल दिये ।चलते समय अपने साथ कुछ दास, दासी, सैनिक तथा हाथी-घोड़े भी ले लिये ॥
नानोपचारान्सीतार्थ संगृह्य शकटादिभिः ।
चकार गेहं विपुले बाल्मीकेश सुखावहम् ।।४७||
सर्वसंपत्तिसंयुक्तं बहुगोम हिपीयुतम् ।
पूरित धान्यसंघेश्च वस्राभरणादिभिः ।।४८।।
कासारोपवनारामपुष्पवाटिशतावृतम् ।
गवाक्षचन्द्रकान्तानां कपाटैश्च समन्वितम् ।।४९।।
कृष्णागुरुसकपूरोशीरमाल्यादिमोदितम् । कांचनीशृंखलाबद्धरत्नपर्यङ्कमण्डितम् ॥५०॥
हंसपारावतपिककेकीशुकनिनादितम्
मुक्तागुच्छवितानाः शोभित चित्रचिनितम् ।।५१।।
सीताके लिए बहुत-सी सामग्रियों गाड़ियोंपर लदवाकर साथ ले गये। महर्षि वाल्मोकिके आश्रमको जनक ने सब सुखोका भण्डार बना दिया ॥ जानकाजीके वहाँ पहुंचनेपर वह आश्रम सब सम्पत्तियों एवं बहुत-सी गौओं और भैसोंसे भर गया। विविध प्रकारके अन्नों और भांति-भांतिक वस्त्राभूषणोंसे वह पूर्ण हा गया आश्रम के पास सैकड़ों पोखरे, उपवन, बगीचे
बावली तथा कुएं तैयार हो गये । चन्द्रकान्त मणिके झरोखों तथा फाटको वाले भव्य भवन बने ।। कृष्णागुरु, कपूर, खस तथा विविध प्रकारके सुगन्धित पुष्पो से वह आश्रम सुगन्धमय हो गया। जगह-जगह- पर सोने की जंजीरोसे सजे रत्नों के पलंग पड़े हुए थे ॥ हस, कबूतर, कोयल, मयूर तथा तोते के शब्दोंसे वह आश्रम शब्दायमान हो रहा था। यत्र तत्र मोतियोंकी झालरवाली चाँदनियाँ टॅगी हुई थीं और बहुत-सी
तसबीरें भी जहां-तहाँ टेंगी थीं।।
एवं मनोहरं गेहं सीतार्थ जनकोऽकरोत् ।
श्रीः साक्षाद्गतुमुचुक्ता यस्मिन्निव सितु चिरम् ।।१२।।
किं दुर्लभं हि तत्रास्ति वर्णनीयं मयाऽद्य किम् ।
यस्या नेत्रकटाक्षेण शक्रादीनां विभूतयः ।।५३।।
वाल्मीकये सर्ववृत्तं जनकोऽपि न्यवेदयत् ।
मुनिश्चाप्यतिसंतुष्टो मेने स्वतपसः फलम् ॥५४॥
जनकजीने सीता के लिए इस प्रकार का सुन्दर भवन बनाकर तैयार करवाया। यदि ऐसा दिव्य भवन साताजी के वास्ते बन गया तो इसमें आश्चय ही क्या है। जहां निवास करने के
निमित्त साक्षात् लक्ष्मीजी जाने वाली हो, वहाँ कोन वस्तु दुर्लभ हो सकती है । जिसके कटाक्षमात्रसे इन्द्रादि
देवताओंकी भी सम्पत्तियाँ बनती बिगड़ती है। उसके विषयों में कहाँ तक वर्णन करूंगा। जनकजी ने महर्षि वाल्मीकि को भी वह सब बातें बतला दी, जिन्हें सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए और सीता के उस भावी आगमनको उन्होंने अपनी तपस्याका फल समझा ।।
उक्त प्रसङ्ग को पढ़ने से तो यह स्पष्ट हो जता है कि त्याग किस प्रकार हुआ है । अब भी किन्हीं को संदेह है तो यह उनकी निजि दिमाग कि समस्य है वे किसी चिकित्सक से सम्पर्क साधें ।
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अब कुछ बातें ध्यान रहे उक्त प्रसङ्ग के बारे में :~~~
१) भगवान ने भगवती का वास्तविक त्याग नहीं किया अपितु अभिनय किया ।
२) राम के आदेश पर जनक जी ने वहाँ भगवती के लिए सारा प्रबन्ध कर दिया ।
३) दाम्पत्य जीवन में इसे यह सिख लेना चाहिए कि गर्वधान के बाद संसर्ग न करे और प्रसव के पांच माह बाद करे ।
४)गर्वधान के बाद स्त्रियों में भीन्न भिन्न प्रकार कि इच्छा होती है वन घूमना आदि आदि । एवं सीता जी ने स्वयं इच्छा कि थी कि वे ऋषियों कि सेवा करनी चाहती हैं ।
५) इसी प्रसङ्ग में पिंगला स्त्री की कथा भी देखना चाहिए ।
६) इस कथा से यह सन्देश प्रभु देना चाहते थे कि यदि पिता का आश्रय पुत्र पर न हो पर माता अगर योग्य हो विदुषी हो तो तब भी वह अपने पुत्र को इतना योग्य बना सकती है कि वह बाल्यावस्था में भी हनुमाम अंगद आदि जैसे महावीरों को परास्त कर सके जो भगवती सीता ने लव कुश के माध्यम् से कर के दिखा दिया ।
त्याग कारण :---
A) सामाजिक कारण : किसी कारण वश धर्म पे चलने बाली स्त्री पति से स्थाई या अस्थाई रूप से अलग हो जाये पर यदि वह योग्य है तो अपने पुत्रों को धर्मानुरूप बना सकती है ।
B ) पारिवारिक कारण : भगवती को वन विहार कि इच्छा है तो प्रभु ने जनक के माध्यम से उन्हें वहाँ भेजा ।
C) राजनैतिक कारण : प्रजा में जो सीता जी के प्रति कुछ लोगों के द्वारा बातें कहीं जा रही हैं वह अधिक प्रचारित न हो उसे तुरंत समान हो जाये इस के लिए अपनी पारिवारिक , सामाजिक कारण इसे द्वारा पूरित हो जाये इसीलिए भगवती को वन में भेजा ।
वास्तव में यदि गहराई से इस बात को देखा जाए भगवती सीता स्वंय अपनी इच्छा से वन में गयीं और जो कलङ्क था वह तो माध्यम मात्र था । एवं इन सभी क्रिया कलापों के करने के बाद वापस आती हैं और लीला वस धरती में समा जाती हैं और एक वर्ष के बाद पुनः राम के पास आती हैं और अपने सायुज्य को प्राप्त करती हैं हालांकि वाल्मीकि कृत आर्ष रामायण में पुनः आगम कि कथा नहीं पर आंनद रामायण में विस्तृत है ।
यदि लिखा जाए तो एक स्वत्रंत ग्रन्थ इस पर ही हो जये ।
तो कोई भी आक्षेप लांछन प्रश्न आरोप लगाने से पहले श्राद्ध , जिज्ञासा आस्था और तर्क का सहारा अवश्य लें ।
तो भगवान अन्तन है भगवती सीता अन्तन हैं कथा अन्तन हैं ।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
भावार्थ-
हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।
#रामो_विग्रह_वान_धर्म: भगवान स्वंय धर्म के मूर्त रूप हैं उनके द्वारा किया गया कोई भी कृति अधर्म नहीं हैं ।
।।🚩🚩 श्री राम जय राम जय जय राम🚩🚩 ।।
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