सती प्रथा का सत्य

सती-प्रथा जैसी कुरीतियाँ हम भारतियों के लिए शर्म की नहीं बल्कि गर्व की बात है.....
भारतियों की सती-प्रथा,जाति-प्रथा,मूर्ति-पूजा,छूआछूत,ज्योतिष,तंत्र-मंत्र,रीति-रिवाज आदि परम्पराएँ; जिसे कुरीति,मूर्खता या अंधविश्वास बताकर भारतीयों को अपमानित किया जाता है और भारतीय भी शर्मसार होते रहते हैं इन बातों के लिए।पर मैं अपने देशवासियों को यह बताना चाहूँगा कि ये सारी परम्पराएँ हम भारतीयों के लिए कोई शर्म की बात नहीं बल्कि बहुत ही गर्व करने की बात है...........

अरे हमने तो अमृत रखे थे अपने पास,इसे जहर तो आपने बना दिया और अब आप ही हमपर जहर रखने का इल्जाम लगाकर हमें अपमानित कर रहे हैं...!

हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे जो इन सारी चीजों के साथ चलते थे बल्कि मूर्ख वो हैं जो इसे समझ नहीं पाए।उदाहरण के लिए देखिए--सती-प्रथा को भारतीयों की सबसे घृणित परंपरा माना जाता है पर मेरे नजर में यह एक महान,आदरणीय और पूज्यनीय परंपरा है।विदेशियों की इतनी औकात ना तो कभी थी और ना ही अब है कि वो इस महान कार्य(पत्नी का सती होना) को समझ सके।

जरा विचार करिए कि जीवन-बीमा(life insurance policy) जो अभी इतना लोकप्रिय है जिसे लोग खुशी से अपनाते हैं पर भविष्य में यह भी संभव है कि जीवन-बीमा कराना एक अपराध घोषित कर दिया जाय।हो सकता है कि लोग अपनी पत्नी,अपने माँ-पिता,भाई का पैसे के लालच में जीवन-बीमा कराकर उनकी हत्या करना शुरू कर दे।यह दुष्कर्म अगर बहुत ज्यादा होना शुरू हो जाएगा तो कानून बनाकर इसे दण्डणीय अपराध घोषित करना पड़ जाएगा तो ऐसी स्थिति में बताइए कि हमारे जो पूर्वज जीवन-बीमा कराते थे वो पापी या मूर्ख थे या जीवन-बीमा गलत चीज थी या इस जीवन-सुरक्षा पॉलिसी को जीवन-हरण पॉलिसी में बदलने वाले लोग?

बिलकुल यही स्थिति सती-प्रथा के साथ भी हुई।सती-प्रथा की शुरुआत महाभारत काल से मानी जाती है तो ये वो समय था जब पत्नी अपने पति के प्रति पूरी तरह समर्पित होती थी।पत्नी का पति के प्रति इतना स्नेह,प्रेम और समर्पण होता था कि वो अपना पूरा जीवन,अपना सारा सुख-दुःख सब कुछ पति को ही समझती थी।जिस प्रकार एक भक्त अपने भगवान को अपना सब कुछ सौंप देता है,अपने इष्ट देव के प्रेम(अर्थात भक्ति) में इतना खो जाता है कि उसे अपने भगवान के अलावा कुछ और दिखाई ही नहीं देता है,उसके भगवान की खुशी से ही उसकी खुशी होती है और दुःख से उसका दुःख।उसी प्रकार पत्नी भी अपने पति से वैसा ही प्रेम करती थी।जहां प्रेम होता है वहाँ समर्पण होता है,वहाँ सम्मान होता है।ये पत्नी का सम्मान और समर्पण था अपने पति के लिए जो वह पति को परमेश्वर मानती थी और उसके लिए अनेक कष्ट सहकर भी,कठिन-से-कठिन व्रत रखकर भी पति के सुखी जीवन की कामना करती थी।ये अलग बात है कि पुरुषों ने अपनी पत्नियों के इस महान त्याग और प्रेम को उसकी कमजोरी तथा मजबूरी समझा और उसका सम्मान करने की बजाय हर जगह उसका अपमान किया।

इस त्याग के कुछ उदाहरण देखिए-सीता का त्याग तो सब जानते ही हैं,उस महान नारी गांधारी के त्याग के बारे में सोचिए।गांधारी ने अपनी खुशी से धृतराष्ट्र से शादी की थी ना कि किसी के दवाब में और अपनी खुशी से ही जीवन भर अपनी आँखों पर पट्टी बाँध कर रखी थी।गांधारी का कहना था कि जब उसके पति ही देखने के सुख से वंचित हैं तो वो देखने का सुख कैसे ले सकती है इसलिए उसने भी ना देखने का व्रत लिया और अपने आँखों पर पट्टी बाँध ली।

तो सोचिए कि जो पत्नी अपने पति के लिए इतना कुछ त्याग कर सकती है वो अगर अपने पति की मृत्यु पर अपने भी प्राण त्याग दे तो क्या यह बड़ी बात है??नहीं ना! यही कारण था कि पहले पत्नी ऐसा(सती-कर्म) किया करती थी पर ये उसकी अपनी खुशी थी किसी का दवाब नहीं।जिस पत्नी को अपने पति की मृत्यु के बाद अपना जीवन नीरस और व्यर्थ लगता था वो ऐसा करती थी।इसलिए महाभारत में या शिव-पुराण में कुछ उदाहरण इसके देखने को मिल जाते हैं पर जब विदेशियों का भारत पर आक्रमण काफी बढ़ गया और खासकर हूणों और मुसलमानों के आक्रमण के बाद से यह प्रथा बृहद पैमाने पर दिखाई देने लगी।चूंकि मुसलमानों का युद्ध का प्रमुख हथियार बलात्कार होता था और उनका प्रमुख हमला स्त्रियों पर ही होता था इसलिए अपने पति की मृत्यु के बाद रानियों के पास और कोई उपाय नहीं बचता था सिवाय सती होने के।भारतीय नारियाँ अपने शरीर को

पर-पुरुष के हवाले करने की तुलना में अग्नि के हवाले कर दिया करती थी जो कि एक पूज्यनीय कार्य ही कहा जाएगा।रानी पद्मावती और उनके साथ हजारों राजपूत नारियों का जौहर((सती की तरह ही पति की मृत्यु के पूर्व ही किया जाने वाला कर्म)) कौन भूल सकता है जिन्होंने अपने पतियों को मुगलों के विरुद्ध युद्ध में भेज दिया और एक विशाल अग्नि-कुण्ड का निर्माण कराकर स्वंय को अग्नि को समर्पित कर दिया क्योंकि मुगलों की जीत निश्चित थी।बृहद पैमाने पर इस तरह के कर्म संपादित होने के कारण इसका राजमहल के दायरे से बाहर निकलकर आम जनों तक फैल जाना स्वाभाविक ही था। बाहर आकर यह कभी-काल होने वाला पुण्य-कर्म प्रथा बन गई फिर कुछ मूर्ख लोगों के द्वारा इसका गलत अर्थ लगाने के कारण तथा कुछ स्वार्थी लोगों के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करना शुरू कर देने के कारण यह महान कर्म विकृत होता चला गया[0[अधिकांशतः यही देखा गया कि सती वही विधवा महिलाएं हुई जो धनवान थी तथा निःसंतान थी,यानि धन के लोभ में उसके देवर या परिवार के अन्य लोग उसे सती होने के लिए विवश कर देते थे]0]....।

और फिर उसके बाद तो अंग्रेजों को भी मौका मिल गया हमें नीचा दिखाने का।हमें बस विकृत अपराधपूर्ण सती-प्रथा के बारे में ही बताकर अपमानित किया गया और सच्चाई को छुपाकर रखा गया। हमारा अमृत जब जहर बना दिया गया तब यह प्रचारित करना शुरू कर दिया गया कि हम जहर रखने वाले जहरीले लोग हैं लेकिन जब हमारे पास अमृत था तो उसे तो पहचान नहीं पाए और हम अमृत रखने वाले देवता थे यह तो कभी प्रचारित नहीं किया.......

स्वाभाविक सी बात है कि अगर हमारे अमृत के बारे में बताया जाएगा तो फिर उसे जहर बनाने वाले के बारे में भी बताना पड़ जाएगा और तब हमें अपमानित करने वाले लोग खुद अपमानित हो जाएंगे इसलिए हमें बस कुरीति के बारे में बताया जाता है लेकिन हमारी रीति कुरीति में कैसे बदली और इसे बदलने वाले कौन थे ये नहीं बताया जाता है।

मैं सती-प्रथा का पक्षधर नहीं हूँ और ना ही चाहता हूँ कि यह दुबारा फिर शुरू हो {0{क्योंकि इस महान कर्म की आढ़ में अनेक पाप होने लगते हैं जिस प्रकार आज साधु-सन्यासियों के आढ़ में चोर-डाकू पुलिस की आँख में धूल झोंक रहे हैं।हो सकता है भविष्य में सन्यासी बनने जैसा महान त्यागी कर्म भी एक घृणित कर्म बनकर रह जाय}0} लेकिन मुझे कोई शर्म महसूस नहीं होता,बल्कि गर्व महसूस होता है कि हमारे देश में ऐसी महान नारी होती थी जो ऐसे महान कार्य भी करने की हिम्मत रखती थी।

एक बात और कि कोई भी भारतीय-ग्रंथ ना तो स्त्री को सती होने के प्रेरित करती है और ना ही दबाव डालती है।

इसी तरह की बात हरेक कुरीतियों के साथ भी है।चूंकि सबसे ज्यादा घृणित इसी कर्म को माना जाता है जो कि कभी एक महान कर्म हुआ करती थी इसलिए इसके बारे में विस्तार से लिखा मैंने।अन्य परम्पराओं जैसे जाति-प्रथा और छुआछूत आदि के बारे में भी लिखुंगा कि कैसे ये महान परंपराएँ बाद में विकृत होकर घृणित हो गई।

क्रमशः............

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